________________
किरण ]
क्या असंज्ञी जीवोंके मनका सद्भाव मानना आवश्यक है ? [२२६ अस्तु ! ऊपर जो स्मृतिमें कारणभूत धारणाज्ञानका संकेत होता है। किया गया है वह धारणाज्ञान चू कि पदार्थ दर्शनके सद्भाव २-इन्द्रियों अथवा मन द्वारा होने वाला पदार्थ प्रत्यक्ष या में ही उत्पन्न होता है अतः वह ज्ञान प्रत्यक्षज्ञानकी कोटिमें तो सोधा धारणारूप होता है। अथवापहुँच जाता है। तथा इस धारणाज्ञानके अतिरिक्त इमके ३-अवग्रह पूर्वक धारणारूप होता है । अथवापूर्ववर्ती श्रवाय, इहा और अवग्रहज्ञान भी चूँ कि पदार्थ ४–पंशयात्मक अवग्रहण होनेके अनन्तर यथायोग्य साधन दर्शनके सद्भावमें ही उत्पन्न हुआ करते हैं अत: ये तीनों मिलने पर धारणारूप होता है । अथवाज्ञान भी प्रत्यक्षज्ञानकी कोटि में पहुँच जाते हैं।
५-संशयात्मक अवग्रहणके अनन्तर यथायोग्य साधनोंके यहाँ पर इतना विशेष समझना चाहिए कि वाय, ईहा मिलने पर उसकी अवायामक स्थिति होती है और और प्रवाह ये तीनों ज्ञान यद्यपि धारणाज्ञानके पूर्ववर्ती होते तदनन्तर वह धारणारूप होता है । अथवाहैं परन्तु इनका धारणाज्ञानके माथ कार्यकारण सम्बन्ध नहीं ६-संशयात्मक अवग्रहणके अनन्तर यथायोग्य साधनोंके है अर्थात् जिस प्रकार पूर्वोक्न प्रकारसे धारणा आदि ज्ञान मिलने पर उसकी ईहात्मक स्थिनि होती है और तब स्मृति श्रादि ज्ञानों में कारण होते हैं उस प्रकार धारणाज्ञानमें वह धारणारूप होता है । अथवाअवाय अादि ज्ञानोंको कारण माननेको अावश्यकता नहीं है -ईहाके बाद आवायात्मक स्थिति होकर वह धारणारूप क्योंकि ऐमा कोई नियम नहीं है कि धारणाज्ञानके पहले होना है। इस प्रकार ऐन्द्रियिक पदार्थ प्रत्यक्षके धारणा अवाय आदि ज्ञान होना ही चाहिये।
रूप होनमें ऊपर लिखे विकल्प बन जाते हैं और इन तात्पर्य यह है कि कभी कभी हमारा ऐन्द्रियिकज्ञान
सब विकल्पोंके साथ पदार्थदर्शनका सम्बन्ध जैसाका तैसा अपनी उत्पत्ति के प्रथमकालमें ही धारणारूप हो जाया करता
बना रहता है लेकिन जिस समय और जिस हालतमें है अत: वहाँ पर यह मेद करना असम्भव होता है कि ज्ञान
पदार्थका दर्शन होना बन्द हो जाता है उसी समय को यह हालत तो अवग्रहज्ञानरूप है और उसकी यह हालत और उसी हालन है पदार्थ प्रत्यक्षकी धारा भी बन्द हो धारणारूप है । कभी २ हमारा ऐन्द्रिक ज्ञान अपनी उत्पत्ति
जाती है इस तरह कभी तो ऐन्द्रियिक पदार्थ प्रत्यक्षके प्रथमकालमें धारणारूप नहीं हो पाता, धीरे-धीरे काला
धारणरूप हो कर ही समाप्त होता है और कभी-कभी न्तरमें ही वह धारणाका रूप ग्रहण करता है इसलिए जब
यथायोग्य अवग्रह, संशय, ईहा या अवायकी दशामें ही तक हमारा ऐन्द्रियिक ज्ञान धारणा रूप नहीं होता, तब तक
वह समाप्त हो जाना है। वह ज्ञान अवग्रहज्ञानकी कोटि में बना रहता है। यदि कदा- इस विवेचनस यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जिस चित् हमारा ऐन्द्रियिक ज्ञान किन्हीं कारणोंकी वजहसे संशया- प्रकार धारणा प्रत्यक्षसे लेकर परोक्ष कहे जाने वाले स्मृति, स्मक हो जाता है तो निराकरणके साधन उपलब्ध हो जानेपर प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुतरूप ज्ञानोंमें नियत, संशयके निराकरण कालमें ही वह ज्ञान धारणा रूप नहीं हो प्रानन्तयं पाया जाता है उस प्रकार प्रत्यक्ष कहे जाने वाले जाया करता है । कदाचित् संशयके निराकरण कालमें वह ज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप ज्ञानोंमें पानन्तर्य धारणा रूप नहीं हो सका तो जब तक वह ज्ञान धारणारूप नियत नहीं है तथा यह बात तो हम पहले ही कह आये हैं नहीं होता तब तक उसकी अवायरूप स्थिति रहा करती है। कि अवग्रह, ईहा, अवाय ओर धारणा इन चारों प्रकारके कभी कभी संशय निराकरणके साधन उपलब्ध होने पर भी प्रत्यक्षज्ञानों में उत्तरोत्तर कार्यकारण भावका सर्वथा अभाव यदि संशयका पूर्णतः निराकरण नहीं हो सका तो उस हाल- ही रहता है। तमें हमारा वह ज्ञान ईहात्मक रूपधारण कर लेता है और इन पूर्वोत्र प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी ऐन्द्रियिक ज्ञानोंमें कालांतरमें यह ज्ञान या तो सोधा धारणारूप हो जाया करता से एकन्द्रियस लेकर पंचेन्द्रिय तकक समस्त अरुंजी जीवोंके है अथवा पहले अवायात्मक होकर कालांतरमें धारणरूप होता पदार्थका केवल अवग्रहरूप प्रत्यक्ष ज्ञान स्वीकार किया जावे है इस तरह ज्ञानके धारणारूप होने में निम्न प्रकार बिकल्प और शेष प्रत्यक्ष कहे जाने वाले ईहा, अवाय और धारणाखड़े किए जा सकते हैं
ज्ञान तथा परोक्ष कहे जाने वाले स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तक, १-पदार्थ दर्शनकी मौजूदगीमें ही उस पदार्थका प्रत्यक्ष अनुमान और श्रतज्ञान उन अमंशी जोवोंके न स्वीकार किये