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________________ औपचारिक है, वास्तविक नहीं तो सवथा संवृत्तिरूप होनेसे वह मिथ्या क्यों नहीं है?-अवश्य ही मिथ्या है, और इसलिये उसके आधार पर सन्तान प्रात्मा जैसी कोई वस्तु व्यवस्थित नहीं बनती। यदि संतानका मुख्य अर्थके रूपमें माना जाय तो जो मुख्यार्थ होता है वह सर्वथrसंवृति रूप नहीं होता और यदि मवृति रूप में उसे माना जाय तो संवृति बिना मुख्यार्थ के बनती नहीं-मुख्यक विना उपचारकी प्रवृत्ति होती ही नहीं। जैसे सिंहके सद्भाव-बिना सिंहका चित्र नहीं बनता।' चतुष्कोटेर्विकल्पस्य सर्वन्तेषूक्त्ययोगतः । तत्त्वाऽन्यन्यत्वमवाच्यं चेत्तयोः सन्तानतद्वतोः ॥४॥ _ 'यदि (बौद्धोंकी ओर से) यह कहा जाय कि चूंकि सब धर्मों में चतुष्कोटिविकल्पके कथनका अयोग है-सत्व-एकत्वादि किसी भी धर्मके विषयमें यह कहना नहीं बन सकता कि वह सत् रूप है या असत् रूप है अथवा सत् असत् दोनों (उभय ) रूप है या दोनों रूप नहीं ( अनुभय रूप ) है; क्योंकि सर्वथा सत् कहने पर उसकी उत्पत्तिके माथ विरोध प्राता है, सर्वथा असत् कहने पर शून्य-पक्षमें जो दोष दिया जाता है वह घटित होता है, सर्वथा उभयरूप कहने पर दोनों दोषोंका प्रसंग पाता है और सर्वथा अनुभय पक्षके लेनेपर वस्तु निर्विषय, नीरूप, निःस्वभाव अथवा निरुपाख्य ठहरती है और तब उसमें किसी भी विकल्पका उत्पत्ति नहीं बनती-अनः उन सन्तान सन्तानीका भी तत्त्व (एकत्व-अभेद) धर्म तथा अन्यत्व (नानात्व-भेद ) धर्म (धर्म होनेसे) अवाच्य ठहरता है। तदनुसार उभयत्व-अनुभषन्व धर्म भी (अवाच्य ठहरते हैं ); क्योंकि वस्तुके धर्मको वस्तुसे सर्वथा अनन्य (अभिन्न) कहनेपर, वस्तुमात्रका प्रसंग आता है, वस्तुसे सर्वथा अन्य (मिन ) कहने पर व्यपदेशकी सिद्धि नहीं होती अर्थात् यह कहना नहीं बनता कि अमुक वस्तुका यह धर्म है, सर्वथा उभय ( भिन्नाभिन्न ) कहने पर दोनों दोष पात हैं और सर्वथा अनुभय (न भिन्न और न अभिन्न ) कहने पर वस्तु निरुपाख्य एवं निःस्वभाव ठहरती है- इससे सन्तान-पन्ततीके धर्म-विषयमें कुछ भी कहना नहीं बनता, ( तो यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि) अवक्तव्यचतुष्कोटिविकल्पोऽपि न कथ्यताम् । असर्वान्तमवस्तु स्यादविशेषस्य-विशेषणम् ॥४६॥ 'तब तो (बौद्धोंको ) 'चतुष्कोटिविकल्प अवक्तव्य हैं। यह भी नहीं कहना चाहिये;-क्योंकि सब धर्मोमें उकिका प्रयोग बतलाने अर्थात् सर्वथा अवक्रव्य (अनभिलाप्य ) का पक्ष लेनेपर 'चतुष्कोटिविकल्प अवक्तव्य है' यह कहना भी नहीं वनता, कहनेस कथंचित् वक्तव्यत्वका प्रसंग उपस्थित होता है। और न कहनस दूसरोंको उसका बांध नहीं कराया जा सकता। ऐसी स्थितिमें उसके सर्वविकल्पातीत्व फलित होता है, जो सर्व विकल्पातीत है वह असन्ति (सब धर्मासे रहित ) है और जो असर्वन्ति है वह (आकाश कुसुमके समान ) अवस्तु है; क्योंकि उसके विशयविशषणभाव नहीं बनता। ऐसी कोई भी वस्तु प्रत्यक्ष प्रतिभासित नहीं होता जो विशंप्य न हो या विशेषण न हो।' (यदि यह कहा जाय कि स्वसंवेदन विशेषण-विशंप्य-रहित हा प्रतिभासित होता है तो वह ठोक नहीं; क्योंकि स्वसंवेदनके भी मत्व (अस्तित्व ) विशेषणको विशिष्टतास विशेष्यका हा अवभामन होता है । स्वसंवेदनक उत्तरकाल में विकल्पबुद्धिक होने पर 'स्वका संवेदन' इस प्रकार विशेषण-विशष्य भाव अवभासित होता है। यदि यह कहा जाय कि स्वसंवेदन अविशष्य-विशेषण रूप है और यह स्वतः प्रतिभासित होता है तो इसस (भी) संवेदनमें विशेषण-विशेष्य-भाव सिद्ध होता है। क्योंकि वैसा कहने पर विशेषणविशष्यत्व ही विशेषण हो जाता है।) द्रव्याद्यन्तरभावेन निषेधः संज्ञिनः सतः । असद्भ दो न भावस्तु स्थानं विधि-निषेधयोः ॥४७॥ ' (यदि विषेषण-विशष्य-भावको सर्वथा अमत् माना जाय तो उसका निषेध नहीं बनता। क्योंकि ) जो संज्ञी (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी उपेक्षा ) सत् होता है उसीका पर द्रव्य क्षेत्रकाल-भावका उपेक्षा निषेध किया जाता है, न कि असन्का । सवया असत् पदार्थ ना विधि निपेधका विषयहा नहीं होता-जो पदार्थ परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षाके समान स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको अपेक्षासे भी असत् है वह सर्वथ। असत् है. उसकी विधि कैसी? जिसकी विधि नहीं उसका निषेध नहीं बनता क्योंकि निषेध विधिपूर्वक होता है । और इसलिये जो सत् होकर अपने द्रव्यादिकी अपेक्षा कथंचित् वक्तव्य है ) उसीक (परद्रव्यादिकी अपेक्षा निषेध हानेस अवध्यपना युक्त टहरता है। और जो सत् पदार्थ स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा कथंचित् विशेषण-विशेप्य रूप है उसीक ( परदन्यादिकी अपेक्षा) अविशष्य-विशेषणपना ठीक घटित होता है। अत: एकान्तसे कोई वस्तु अवक्रव्य या अविशेष्य-विशेषण रूप नहीं है ऐसा बौद्धोंको जानना चाहिये।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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