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________________ ५६४] अनेकान्त [वर्ष १३ सकते हैं। ऐसे लोग वास्तवमें जिमशासनको जानने-समझने पुण्यात्रव भी मानना और संघर निर्जरा भी मानना सो भ्रम और उसके अनुकूल आचरण करनेवाले नहीं कहे जा है। सम्यग्दृष्टि अवशेष सरागताको हेय अदह है, मिथ्याटि सकते, बल्कि उसके दूषक विधातक एवं खोपक ठहरते हैं। सरागभावविष संवरका भ्रम करि प्रशस्तराग रूप कर्मनिको क्योंकि जिनशासन निश्चय और व्यवहार दोनों मूलमयोंके उपादेय अब है।" कथनको साथ लेकर चलता है और किसी एक ही नयके इस उद्धरणका रूप पं० टोडरमलजी की स्वहस्तलिखित बक्रव्यका एकान्त पक्षपाती नहीं होता। पं. टोडरमलजीने , प्रति परसे संशोधितकर छपाये गये सस्ती ग्रन्थमालाके संस्कदोनों नयोंकी दृष्टिको साथमें रक्खा है और इसलिये ___ रणमें निन्न प्रकार दिया हैकिसी शब्दचलके द्वारा उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता। हाँ, जहाँ कहीं वे चूके हों वहां श्री कुन्दकुछ और "जे अंश वीतराग भए तिनकरि संवर है पर जे अंश स्वामी समन्तभन्न-जैसे महान् प्राचार्योके वचनोंसे हो उसका सराग रहे तिनकरि बंध है। सो एक भावतें तो दोयकार्य समाधान हो सकता है। . टोडरमलजीने मोक्षमार्गप्रका- बनै परन्तु एक प्रशस्त रागहोते पुण्याभव भी मानना और शकके में आपकारमें ही यह साफ लिखा है कि- संवर निर्जरा भी मानना सो भ्रम है। मिश्रभाव विषै भी "सो महानतादि भए ही वीतरागचारित्र हो है ऐसा यह सरागता है, यह वीतगगता है ऐसी पहचानि सम्यसम्बन्ध जानि महावतादिविष चारित्रका उपचार (व्यवहार) दृष्टि होके होय तातै प्रवशेष सरागताको हेय श्रद्धहे है किया है। मिथ्यारष्टीके ऐसी पहचानि नाहीं तात सरागभाव विष "शुभोपयोग भए शुद्धोपयोगका यत्न करे तो (शुद्धोपयोग) होय जाय बहुरि जो शुभायोगही को भला जानि ताका संवरका भ्रम करि प्रशस्तरागरूप कार्यनिको उपादेय श्रद्धहै है।" साधम किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे होय।" श्रीबोहराजीके उद्धरणको जब इस उद्धरणसे तुलना इन वाक्यों में वीतरागचारित्र के लिए महावतादिके पूर्व कान न की जाती है तो मालूम होता है कि उन्होंने अपने उद्धरण अनुष्ठामका और शुद्धोपमोगके लिए शुभोपयोग रूप पूर्व में उन पद-वाक्यों को छोड़दिया है जिन्हें यहाँ रेखाङ्कित किया परिणतिके महत्वको ख्यापित किया गया है। गया है और जो सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टिकी वैसी श्रद्धाके ऐसी स्थितिमें जिस प्रयोजनको लेकर ५० टोडरमलजी सम्बन्धमें हेतु उल्लेखको लिये हुए हैं। उनमेंसे द्वितीय तथा के जिन वाक्योंको उद्धत किया गया है उनसे उसकी सिजि तृतीय रखाङ्कत वाक्योंके स्थान पर क्रमशः सम्यग्दृष्टि' तथा नहीं होती। 'मिथ्याष्टि' पदोंका प्रयोग किया गया है और उद्धारणकी पहली ग्रहाँ पर में इतना और प्रकट कर दना चाहता पनिमें 'संवर हे' के प्रागे 'ही' और दूसरी पंक्तिमें 'बन्ध' के है कि श्रीबोहराजीने प० टोडरमल्नजाक वाक्योंको भी डबल पूर्व 'पुण्य' शब्दको बढ़ाया गया है । और इस तरह दमरेइन्वर्टड कामाज " के भीतर रक्या है और वैसा करक के वाक्यों में मनमानी काट-छाँट कर उन्हें असली वाक्योंके यह सूचित किया तथा विश्वास दिलाया है कि वह उनके रूपमे प्रस्तुत किया गया है, जो कि एक बड़े ही खेदका विषय वास्यों का पूरा रूप ह-उसमें काई पद-वाक्य छोड़ा या है ! जो लोग जिज्ञासुकी दृष्टिसे इधर तो अपनी शंकाओंका घटाया-बढ़ाया गया नहीं है । परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी मालूम समाधान चाहे अथवा वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय करनेके नहीं होती-वाक्योंके उद्ध्त करनेमें घटा-बढ़ी की गई है. इच्छुक बनें और उधर जान-बूझकर प्रमाणोंको गलत रूपमें जिसका एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। बोहराजी प्रस्तुत करें, यह उनके लिये शोभास्पद नहीं है। इससे का वह उद्धरण, जो मिश्र-भावक वर्णनसे सबंध रखता है, तो यह जिज्ञासा तथा निर्णयबुद्धिकी कोई बात नहीं रहती, निम्न प्रकार है - बल्कि एक विषयकी अनुचित वकालत ठहरती है, जिसमें "जे अंश वीतराग भए तिनकरि संबर है धी-पर जे झूठे-सच्चे जाली और बनावटी सब साधनोंसे काम लिया अंश सराग रहे तिनकरि पुरयबन्ध है-एकप्रशस्त रागहीते जाता है। (क्रमश.)
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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