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पूजा राग-समाज, तातें जैनिन योग किम !
(पूजा-विषयक रोचक शंका-समाधान )
[स्व० ५० ऋषभादसजी चिलकानवी] [ यह कविता उस 'पंचवालयलिपूजापाठ' का एक अंश है जिसे चिलकाना जिला सहारनपुर निवासी पं० ऋषभदासजी अग्रवाल जैनने, अपने पिता कवि मंगलसेनजी और बाबा सुखदेव तथा विवुध सन्तलालजी की आज्ञानुसार लिखा था और जो उनके प्राथमिक जीवनकी कृति है तथा मधुशुक्ला अष्टमी विक्रम सं० १६४३को बनकर समाप्त हुई थी। आप उर्दू-फार्सी भाषाके बहुत बड़े विद्वान थे और बादको आपने उर्दू में मिथ्यात्वनाशक नाटक' नामका एक बड़ा ही सुन्दर मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक ग्रन्थ लिखा है, जिसके कुछ भाग प्रकट हुए थे परन्तु यह पूरा प्रन्य अभीतक प्रकट नहीं हो पाया। उस ग्रन्थसे आपकी सूझबूझ और प्रतिमाका बहुत कुछ पता चलता है। खेद है कि भापका ३४-१५ वर्षकी युवावस्थामें ही स्वर्गवास हो गया था। अन्यथा आपके द्वारा समाजका बहुत बड़ा काम होता।
-जुगलकिशोर मुख्तार]
सोरठा-जो यह संकैकोय, जिंह सिंह जिन-सूत्रन-विर्षे ।
राग-द्वेष ये दोय, बन्ध-मूल तजने कहे ॥१॥
इम सोचत टुक दृष्टि चतुर्दिस धारतो। लन्यो अहेरी-जाल-बध्यो मंजार तो॥ चतुराईसों धैर्य धार ता विंग गयो। पूछो तिनकरि हर्ष केम प्रावन भयो ॥७॥
पूजा राग-पमाज़, है बाहुल्यपने सही। सो करि होय काज, तातै जैनिन योग किम ॥२॥
तिनको उत्तर-रूप, कहूँ प्रथम दृष्टान्त यह। जिनमत परम अनूप, अनेकान्त सत्यार्थ है॥३॥
बोल्यो सुन मंजार ! बंध्या तोहि जानकै। यद्यपि नटतो सरस इरस चित ठानकै।। तद्यपि काढू बध माज सर्व मैं तेरे। पर जले हो स्वीकार वचन तोकों मेरे॥८॥
(ममाधानात्मक कथा)अडिल्ल-इक दुमतल वनमाहि, एक मूपक रहै ।
दीरघदरमी विज. विचक्षण, गुण गहै ॥ बिलने निसरो नैवयोग मो एकता। भोजन-हेरन-काज फिरत थो जिम सदा ॥४॥
मम भरि वायम नकुल तके मम मोर हो। तिमसे लेहु बचाय भापहूँ छोर ही। मार्जार कहि मीत चतुर ! सो विध कहो । है मोहि सब स्वीकार बच्चन सच सर्द हो ॥६॥
आगे लख मंजार चकित-चित हो फिरो। पोछे दखो नकुल निजासामें निरो॥ ऊपर वायस दल मरण निश्चय किया। लाग्यो करन विचार बर्च अब किम जिया ॥५॥
मूसक बोल्यो यार ! आऊँ जब तो कने। तू कीजो सम्मान वचन हिनके घने ॥ तब वे तज मम पास भ6 वायस-नकुल ।
जो प्रागे पग धरूं बिलाई भखत है, हटत नकुल उत टले न मम दिस लखत है। पर जो ठैरूं यहीं काक बोर्ड नहीं। हाय ! सरण-थल दृष्टि परत कोउ ना कहीं ॥६॥
मम हिय पुलकित होय जेम अम्बुज-बकुल ॥१॥ तब काहूँ सब बन्ध नरे विश्वास गह। है दोउनके प्राण-वचनका यतन यह ॥
® इस ग्रन्थको हिन्दी में अनुवादित कर 'अनेकान्त' में निकालने का विचार हो रहा है।