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________________ अनेकान्त वर्ष १३ सुन बिलाव स्वीकार कियो इम चिन्तियो। मूसक बिन जीतव्य दृष्टि भावै गयो॥११॥ लिंग बुलाय सन्मान कियो बहु प्रेमसों। काक-नकुल भज गये मूस रह्यौ मलों ॥ पुन निजवच-अनुसार बँध काटन लग्यो । पर निज रक्षण संक फेर इम हिय जग्यो ॥१२॥ मम दारुण परि जाति-विरोधी यह सही। किम छोड़ेगो छुटत एम चिन्ता लही॥ मार्जार कहि मीत । सिथल कैसे भये। कहा द्रोहकी ठई विसर निजवच गये ॥१३॥ मूस कही मंजार ! अनल वारिज जनै। तथपि ठान द्रोह कदें यह ना बने । तोते उपजै संक सिथल तातें रहूँ। पर कार्टू सब बन्ध धीर रख सच कहूँ ॥ १४ ॥ कहि बिलाव सौं खाय गही मैं मित्रता । तो चितते तोऊ नाहिं गई यह चित्रना। किम काटेगो बन्ध चित्त संकित रहे। अविश्वास तज मान वचन नीक कहे ॥१६॥ मुम कही कार्यार्थि म हमने किया। निश्चय तू मम जाति-विरोधी निर्दया । सो कार्यार्थी प्रीति कार्य-परिमित हनी। तात मोहे कर्तव्य है रक्षा निज तनी॥१५॥ फुन निजवचन-निर्वाह हु मोहे करना सही। दोउ विषमता बनी चिंति यह विधि लही॥ एक कठिन बैंध छार और काढूँ सभी। जब ताहे पकडन वधिक यहाँ श्रावै अभी॥१७॥ तू मोहे विसरै व्याकुन्ज मोहे अति कष्ट है। तब वह बन्धहु काटू भजे दुख नष्ट है। पुन ऐसा ही कियो मूल धीधारने । हं प्रसन्न स्वीकार, कियो मंजारने ॥१८॥ दोहा-एते पायो बधिक तिह, श्रोतु देखि हर्षाय। कार्य-सिद्धिको दखिक, सबको चित उमगाय ॥१६॥ पकड़न पायो निपट ढिंग, व्याकुल भयो बिलाव । मूसक उत बँध काटियो, भागे लख निज दाव ॥२०॥ भो भव्य! विचारहू ज्यों सब निवरै भ्रान्त । तिस ही प्रश्नको समझिये उत्तर यह दृष्टान्त ॥२१॥ भाव-अर्थ यह यद्यपि रिपु सब तजने योग । तद्यपि बहु मैं एककी पक्ष गहै सुमनोग॥ २२॥ कार्य भये सोहू तजै, पर कर प्रति-उपकार । निज-रक्षा रख मुख्य जिम मूस तज्यो मंजार ॥२३॥ फुन विशेष कछु कहत हूँ, सुनन-योग्य मतिमान । वाद-बुद्धि तज भ्रम मिटै, खोज-बुद्धि चित पान ॥२४ अडिल्ल-मूस ममम जिय, जगत महाबिल जानिये। नकुल द्वेष अरु काग, मोहको मानिये ॥ राग महा मंजार, बँध्यो वृष-जालमें ! पूजा अरु दानादि, बन्ध-विकरालमें ॥२४॥ जिय सुख-भोजन-काज मनुष-गति नीसरो। दो रिपुते डर मिल्यो बँध्यो लख तीसरो॥ पूजन-राग-प्रभाव द्वेष-मोह आय भये । इत्यादिक दुख दोष शेष अरि सब गये ॥ २६॥ फुन जिय मोचो याका हू विश्वास जो। गहूँ न छाडे अधिक करै भव-वाम को । पर मोहे निश्चय करना प्रति-उपकार भी। पर न सके जब मोहि ये भवमें डार भी॥२७॥ इम विधि चिन्तत दाव तकत निस-दिन रह्यो । बल मुग्व दृग पर ज्ञान अखिल जब यि लयो । तब सब श्रारज दम विहर उपदेमियो। ' जिन-पूजन-प्रस्ताव सातिशय जग कियो ॥२८॥ जो है व्युत्पन्न मोक्षपद ते लहैं। सठमति राग-द्वेष मोह-मुखमें रहें। जो जिन-भरचन-राग-सरण नाहीं गहैं। ममझ न किम भव-मांहि शत्रु-कृत दुख सहैं ॥२॥ दोहा-तातें जिनपूजा जिया, नित करनी जुत चाव । नरगति श्रावक-कुल मिल्या, नहीं चूकना दाव ॥३०॥ लघु-धी-सम उत्तर कहा, संसय रहै जु शेष । ऋषभदास जिनशास्त्र बहु, देखहु भव्य विशेष ॥३१
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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