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अनेकान्त
[वर्ष १३
दुःखोंका प्रधान कारण कहा है। इनमें से साधुओंके साधा- पूर्ण-श्रमणरणतः नं. २, ३, ४, ५, ६, ७, के कारणोंका तो त्याग जो अन्तरंग १४ प्रकारके और बहिरंग १० प्रकारक होता ही है, क्योंकि वे बाह्य पदार्थोसे सम्बन्ध रखते हैं परिग्रह रहित हो सर्व प्रकारके प्रारंभोंका त्यागी हो, नं० और है के कारण मनमे सम्बन्ध रखते हैं, तथा पाँच समिति और त्रिगुप्तिसे युक्त हो, भिक्षावृत्तिसे नं. १ और १० के कारण भोजनसे सम्बन्ध रखते हैं। शुद्धचर्या करने वाला हो, व्रत, गुण और शोलसे संयुक्त यदि साधु नीरस और अल्प-भांजी है, तब तो उसके
हो, शुद्ध भावोंका धारक हो हिवमित-प्रिय-भाषी हो, महजमें ही ब्रह्मचर्यका साधन संभव है। पर यदि वह एकाग्र होकर ध्यान और अध्ययन में रत हो और अत्यन्त सरस, गरिष्ठ और विपुल भांजी है, तब उसके ब्रह्मचर्यका सावधान होकर जीव रक्षा तत्पर हो, वह सर्व गुण सम्पन्न पालन होना संभव नहीं। यदि साधुने नं. १ भोर १० के पूर्ण श्रमण कहा गया है। (१०८ से ११५) इन दोनों प्रब्रह्मके द्रव्य-कारणोंका सर्वथा त्याग कर दिया है, तो शेष पाठ मध्यवर्ती कारणांका उसके महजमें ही ऐमा सर्वगुण-सम्पन्न और सर्व-दोष रहित श्रमण ही त्याग संभव है। अतः साधुको नीरस और अल्पभाजी सिद्धि को प्राप्त करता है । यही समयसार है और इसका होना ही चाहिए। (१०५-१०७)
प्रतिपादन करना ही समयसाराधिकारका प्रयोजन है।
मूलाचारके कर्तृत्व पर नया प्रकाश
मूलाचार मा. कुन्दकुन्द रचित है, यह बात अनेकांन दायातं कुन्दकुन्दाह्वयचरमलसञ्चारणैस्सुप्रणीतम् । के विगत दो अंकों द्वारा स्पष्ट कर दी गई है। फिर भी तद्व्याख्यां वासुनन्दीमबुर्धावलिखनावाचमानायासभक्त्या, विद्वान् लोग इस विषयको स्पष्ट उल्लेखों द्वारा पुष्ट (?) संशोध्याध्ये तुमहमिकतयति कृति (?). ........॥२०॥ करनेके प्रमाणांके लिए उद्योग-शील रह रहे हैं। हमने इस इस पथके चतुर्थ चरणका श्राधा भाग त्रुटित है' विषयमें विशेष जानकारीके लिए कुछ पुराने शास्त्रभंडारों एवं दो एक स्थल संदिग्ध हैं, तथापि इसमें इतना तो के व्यवस्थापकोंको छान-बीनके लिए प्रेरया की। जिसके स्पष्ट ही लिखा है कि-'यह मूलाचार नामक शास्त्र फलस्वरूप मूडबिद्री स्थित श्री०६० बोकनाथजी शास्त्री प्रादि जिनेन्द्र वृषभनाथके द्वारा उपदिष्ट है और वह सरस्वती-भंडारके व्यवस्थापक श्री पं० एस. चन्द्रराजेन्द्र परम्परा-प्रवाहसे श्राकर श्रा० कुन्दकुन्दको प्राप्त हुआ। शास्त्रीने वहांके जैनमठके मूलाचारकी ताइपत्रीय प्रतिका उसे दिव्य चारणऋद्भि धारकोंमें अन्तिम आ. एक उल्लेख हमारे पास भेजा है. जिससे यह भली प्रकार कुन्दकुन्दने रचा। उसकी व्याख्या श्रा. वसुनन्दिने की, स्पष्ट हो जाता है कि मूलाचार प्रा. कुन्दकुन्द-रचित उसमें जो प्रमादजन्य मूलें हुई हो. उन्हें शास्त्र-वेत्ता
संशोधन करके अध्ययन करें । ॥ २० ॥ मुजाचारके तारपत्रीय ग्रन्थ नं. ५६ के अन्त में इस पच प्रमाणके उपलब्ध होनेसे यह और भी रद वसुनन्दी टोका समाप्त होनेके अनन्तर यह निम्नलिखित हो जाता है कि मूलाचार श्रा. कुन्दकुन्दके द्वारा ही पद्य पाया जाता है:
रचा गया है। मूलाचाराख्यशास्त्रं वृषभजिनवरीपज्ञमहरप्रवाहा
-हीरालाल शास्त्री