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किरण १ ]
पुरातन जैन साधुओंका आदर्श
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अायरियत्तणतरिओ पुव्वं सिम्पत्तणं अकाऊणं। और न होगा । इसलिए साधुको सदा स्वाध्यायमें हिंडई दु'ढायरिओ गिरंकुमो मत्तहत्थि व्व ॥ निरत रहना चाहिए ।
अर्थात-कोई दंढाचार्य किसी माधु संगमें रहकर अनन्त मंसारके कारणऔर शिष्यपनेका अभ्यास न करके शीघ्रतापे स्वयं प्राचार्य
तास्वयं प्राचार्य जीवको अनादि कालमे आज तक संसार में परिभ्रमण बनने की भावनामे प्रेरित होकर मदोन्मत्त हम्नीके ममान कराने वाले रागद्वप हैं और इनकी उत्पत्ति जिहा और निरंकुश घूमता-फिरता है।
उपस्थ (म्पशन) इन्द्रियके निमित्तसे होती है। इन दोनों ___प्रा. कुन्दकन्द ऐसे स्वच्छन्द विहारी एकाकी माधुके इन्द्रियोंके वश होकर ही यह जीव अनन्त दुःखोंको भोगना दोष बतलाते हुए मूलाचारके समाचाराधिकारमें कहते हैं- चला भारहा है, इसलिए इन्हें जीतनेका भरपूर प्रयत्न मच्छंद गदागदी-मयण णिमयग्गादाणभिक्खयोमरगणे। करना चाहिए। (१६-१८) मूलाचार कार कहते है कि सच्छंदपाँच य मा मे सत्त विएगागी ।।१५०|| चित्र-गत भी स्त्रीरूपके दर्शनसे मनुष्यके हृदय में सोम
साधु-चर्याका ध्यान न रखकर स्वतंत्रनासं गमनागमन उत्पन हो जाना है, इसलिए उसे अपने ब्रह्मचर्य की रक्षाके शयन-मापन, श्रादान-निक्षेपण करने वाला और स्वच्छन्द लिए माता, बहिन, बेटी, मूका, गूगी और वृद्धा होकर आहार विहार करने वाला एमा मेरा शत्र भी मत स्त्रियां तकके संपर्क सदा दूर रहना चाहिए, क्योंकि हो! फिर माधुको तो बात ही क्या है ? अर्थात् माधुको पुरुष घी से भरे हुए घड़ेके सदृश होता और स्त्री कभी एकाकी नहीं रहना चाहिए।
जलती हुई अग्निक समान हाबी है। इन दोनांक मूलाचार-कार एकाविहारी साधुके दोष बत- संसर्गमात्रमं मनुष्योंका हृदय द्रवित हो उठता है। अनेक लाते हुए कहते हैं कि साधुके अकेले विहार करनेसे योगी स्त्रो-सम्पर्कस भ्रष्ट हो चुके हैं, इसलिए कुरूपा गुरुको निन्दा होती है, श्रतका विच्छेद हो जाता है, सरूपा सभी प्रकार की स्त्रियांसे सदा दूर रहना तोर्थकी मलिनता होता है, जढ़ता-मूर्खना की वृद्धि चाहिए (88-१००)। होती है, बिहजता और कुशीलता प्राप्त होती है। अब्रह्मक कारण( सामा० १५१) इसलिए माधु को मदा संघ में ही रहना यद्यपि मनुष्य तीन चारित्र-मोहोदय के उदयसे ही चाहिए।
अब्रह्ममें (स्त्री-पुरुषसम्बन्धो विपय - संवनमें ) प्रवृत्त म्वाध्यायमे लाभ
होता है, तथापि उसके कारणभून दम्यों पर भी मूलाचारस्वाध्याय करने के लाभ बतलाने हुए प्रा० कुन्दकुन्द कारने प्रकाश डाला है । उन्होंने अग्रह्मक दश द्रष्य कारण कहते हैं कि म्वाध्याय करने से मनुष्य ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैं:-१ विपुल-माहार-अधिक होता है, कषाय और गारवये उन्मुक होता है और मात्रामें श्राहार ग्रहण करना, २ काय-शोधन-म्नान, सध्यान में तल्लीन रहता है जिससे कि वह अल्पकालमें नैल मर्दनादि राग वधक राग-कारणोंपे शरीरका संवारना. ही संमारसे पार हो जाता है। स्वाध्याय करते समय शृंगार करना, ३ मुर्गान्धत मान्ना धारण करना, इत्रादि मनुष्यकी इन्द्रियां अपने विषयों में प्रवृत्त नहीं होती, अन लगाना, ५ गीन-वादित्रादि सुनना, ५ शयन-शोधनइन्द्रियों पर सहज ही विजय प्राप्त होता है। मन, वचन कोमल शय्या रम्बना शयनागार का काम बर्धक चित्रांस कायकी चंचलता हकनेसे वह तीन गुप्तियांका भी धारक सजाना, ६ स्त्री-संपर्ग-राग बहुल स्त्रियों के साथ संपर्क बन जाता है और स्वाध्याय में तन्मय हुए साधुका चित्त रखना. ७ अर्थ-ग्रहगाहण्या-पैसा रखना, रत्न सुवर्णादि भी सहज में एकाग्र हो जाता है। स्वाध्याय की महिमाका के प्राभूषण और उत्तम बम्बादि रखना. - पूर्व-पतिगान करते हुए मूलाचार-कार कहते हैं
____ स्मरण-पूर्वकाल में भागे हुए भोगोंका स्मरण करना, है बारविधम्हि य तब सम्भंतर बाहिरे कुमलदि। इन्द्रिय-विषयनि-पांचों इन्द्रियोंक विषयों में रति या शावि अस्थि णविय हादि सज्झायममं तवाकम्म॥७॥ प्रीति रखना, और १० प्रणीत रस-सेवन-गरिष्ठ और
अर्थात्-जिनेन्द्र-उपदिष्ट बाह्य-आभ्यन्तर बारह पान्टिक रसोंका सेवन करना। मूलाचार-कारने इन दशों प्रकारके तपामें स्वाध्यायके समान परम तप न अन्य है ही द्रव्य कारणों को ब्रह्मचर्यका घातक एवं संसारके महा