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अनेकान्त
[किरण १ जुगुप्साका त्याग आवश्यक है
भूमि, शून्यागार (सूना-खाली पड़ा हया मकान) और व्यवहारकी शुद्धि और परमार्थकी सिद्धि के लिए लौकिक वा मला
वृक्षका मूलभाग तथा जहां पर वैराग्य उत्पन्न हो वैराग्यऔर लोकोत्तर जुगुप्सा या अशुचिताका परिहार भी माधु को वृद्धि और रक्षा हो, ऐसे विराग-बहुल स्थानको धीर को करना चाहिए। यदि माधु व्यावहारिक शुद्धि नहीं वो जितन रखता, तो वह लोक-निन्दाको प्राप्त होता है और यदि बाह्य द्रव्यं का भी प्रभाव पारमा पर पड़ता है इस परमार्थ शुद्धि नहीं रखता, तो व्रत-भंगको प्राप्त होता यातका वर्णन करते हुए मूलाचार कार कहते हैं:-- है। इसलिए जिस प्रकार संयमकी विराधना न हो और वडढदि वोही संसग्गेण तह पुणो विरणस्मेदि । लोकनिन्दा भी न हो उस प्रकारसं माधुको दोनों प्रकार की संमग्गविसेसण दु उत्पलगंधी जहा अंभो ॥१३॥
जुगुप्सानाका परित्याग करना श्रावश्यक है । (गा० ५५) अर्थात् - उत्तम जनोंके संसर्गसे बोधि-रत्नत्रयकी निमित्त कारणांकी उपयोगिता-,
प्राप्ति और वृद्धि होती है और दुर्जनांके संपर्गये ही वुद्धका कुछ लोग उपादानको ही प्रधान मानकर निमित्त विनाश हो जाता है। जैसे कमलकी सुगंधके संसर्गमे कारणांकी अवहेलना या उपेक्षा करने लगे हैं उनके लिए जल सुगंधित एवं शीतल हो जाता है और अग्नि, सूर्यादिके मूलाचार-कारका यह कथन खास तौरसे ध्यान देनेके सम्बन्धसे वह उष्ण और विरस हो जाता है। योग्य हैं:
___ यदि उपादान कारण ही बलवान होना और निमित्त जत्थ कमायुप्पत्तिरभत्तिदियदार इन्थिजणबहुलं ।
कारग कुछ भी न करते हाते तो क्या इस प्रकारसं कुक्षेत्र दुकावमुवमग्गवहलं भिक्खू खत्तं विवज्जे ऊ॥५॥
निवासक परित्यागका उपदेश दिया जाता और क्यों अर्थात-जिस क्षेत्र में कषायोंकी उत्पत्ति हो, श्रादरका सक्षेत्र में निवासका विधान किया जाता ? अभाव हो, मुर्खताकी अधिकता हो, इन्द्रियांके विषयोंकी
___वस्तुत: उपादानके कमजोर होने पर प्रत्येक बाहा वस्तु बहुलता हो, स्त्रियोंका प्राचुर्य हो, क्लेश अधिक हो और
सकषाय भात्मापर अपना प्रभाव डालती है और वह उपसर्ग बहुत ही एमे स्थानका माधु परित्याग करे।
उससे प्रभावित भी होता है। जब कोई मभ्यासी धीरे-धीरे इस उल्लेखमें कुक्षेत्र पर निवास करनेका स्पष्ट निषेध
बुरे बाह्य कारणोंको दुर कर उत्तम बाह्य निमित्ताको किया गया है। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपना जटाता है और उनके श्राधार या निमित्तसे अपने पापको प्रभाव न डालते होते, तो इस प्रकार स्पष्ट रूपसं खुल
संस्कारित करता है, तभी वह उत्तम उपादान शक्तिको शब्दाम कुक्षेत्र में निवासका निपंध कैसे किया माता ? इसस
सम्पन्न कर पाता है और ऐसी अवस्था में ही उसके योग्य ज्ञात होता है कि क्षेत्रादिक अपना-अपना असर जरूर
निमित्त स्वयं हाजिर रहते है। डालते हैं।
एकलविहारी साधु पाप-श्रमण हैइससे भागे और भी ग्रन्थकार कहते हैं:
साधुको सदा संघमें रहनेकी जिनाज्ञा है। केवल उसी णिदिविहरण खेनं णिवढी वा जत्थ दुट्टो होज्ज।
साधुको अकले विहार करने की आज्ञा दी गई है, जिसने पव्यज्जाच ग लब्भइ मंजमघादा य तं वज्जे ॥६॥
कि चिरकाल तक साधु-संघमें रहकर तप और श्रुतका अर्थात्-जो देश राजासे रहित हो, अथवा जहाँका
भली-भांति अभ्यास किया है, जो परीषद और उपसगोंक राजा दुष्ट हो. भिक्षा भी न मिल दीक्षा ग्रहण करने में
सहन करनेकी अलौकिक शक्ति रखता -देश और रुचि भी न हो और संयमका घात हो, ऐसे देशका साधु
कालका ज्ञाता है, उस्कृष्ट संहननका धारक, परम धर्यअवश्य परित्याग करे ।
शानी चिरकालका दीक्षित और पागम बलका धारक है। मूलाचार-कार इस प्रकार कुक्षेत्र के निवासका निषेध
(समा० १४६) यदि उक्त गुणोंके प्राप्त हुए विना कोई करनेके अनन्तर सुक्षेत्रके निवारका विधान करते हुए
साधु प्राचार्य कुलको-संघको छोड़कर अकेले विहार करता करते हैं
गिरिकंदरं मसाणं सुराणागारं च रुवमुलं वा। है तो वह 'पापक्षमण' कहा गया है समय०६८) मुलाठाणं विरागबहुल धीरा भिक्खू णिसेवेऊ ॥५६॥ । चार कार अपने समयमें ऐसे ही किसा स्वच्छन्द-विहारी अर्थात-गिरिकन्दरा (पर्वतोंकी गुफाए) स्मशान साधुका वर्णन करते हुए दिखते हैं -