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________________ किरण १०] समीचीन-धर्मशास्त्र (रत्नकाण्ड) का प्राकथन [२५१ हुए अंगारेकी तरह होता है सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानिधर्म धर्मेश्वरा विदुः । श्लो. ३ सम्यग्दर्शन सम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । धर्म कल्पित ढकोसलोंका नाम नहीं है। धर्म तो जीवनके सुनिश्चित नियमोंकी मंज्ञा है जिन्हें जैन परिभाषामें सामायिक कहते हैं। यदि गृहस्थाश्रममें 'धर्मसे श्वानके सदृश नीचे पढ़ा मनुष्य भी देव रहनेवाला गृही व्यक्ति भी सामायिक-नियमोंका सञ्चाईसे हो जाता है और पापसे देव भी श्वान बन जाता है।' पालन करता है तो वह भी वस्त्रखण्ड उतार फेंकने (श्लोक २६) वाले मुनिके समान ही यतिभावको प्राप्त हो जाता है __ ये कितने उदात्त, निर्भय और आशामय शब्द हैं (श्लोक १०२)। बात फिर वहीं आ जाती है जहाँ जो धर्मके महान आन्दोलन और परिवर्तनके ममय संसारके सभी ज्ञानी और तपस्थित महात्माओंने उसे ही विश्व-लोकोपकारी महात्माओंके कण्ठोंस निर्गत टिकाया है-हिंसा, अनृत, चोरी, मैथुन और परिग्रह होते हैं ? धर्म ही वह मेरुदण्ड है जिमके प्रभावसे ये पांच पापकी पनालियाँ हैं । इनसे छुटकारा पाना मामूली शरीर रखनेवाले प्राणीकी शक्ति भी कुछ ही चारित्र है' (श्लोक ४६)। बिलक्षण हो जाती है। (कापि नाम भवेदन्या सम्पद स्वामी समन्तभद्रके ये अनुभव मानवमात्रके लिये धर्माच्छरीरिणाम् । श्लोक २६)। यदि लोकमें ऑख उपकारी हैं। उनका निजी चारित्र ही उनके अनुभवम्खोलकर देखा जाय तो लोग भिन्न-भिन्न तरह के मोह की वाणी थी। उन्होंने जीवनको जैसा समझा वैसा जाल और अज्ञानकी बातों में फंसे हुए मिलेंगे। कोई कहा। अपने अन्तरके मैलको काटना ही यहाँ सबसे नदी और समुद्र के स्नानको सब कुछ माने बैठा है, बड़ी सिद्धि है। जब मनुष्य इस भवके मैलको काट कोई मिट्टी और पत्थरके स्तूपाकार ढेर बनवाकर धर्म डालता है तो वह ऐसे निखर जाता है जैसे किट्ट और की इति श्री समझता है, कोई पहाड़से कूदकर प्राणांत कलौंसके कट जानेसे घरिया में पड़ा हुआ सोना निखर कर लेने या अग्निमें शरीरको जला देनेसे ही कल्याण जाता है (श्लोक १३४)। अन्तमें वे गोसाई तुलसीमान बैठे हैं-ये सब मूर्खतासे भरी बातें हैं जिन्हें दासजीको तरह पुकार उठते हैं-स्त्री जैसे पतिकी लोक-मूढ़ता कहा जा सकता है (श्लोक २२)। कुछ इच्छासे उसके पास जाती है, ऐसे ही जीवनके इन लोग राग द्वेषकी कीचड़ में लिपटे हुए हैं पर वरदान अर्थोकी सिद्धि मुझे मिले; कामिनी जैसे कामीके पाम पानेकी इच्छासे देवताओं के आगे नाक रगड़ते रहते जाती है ऐसे ही अध्यात्म-सुखकी स्थिति ( सुखभूमि) हैं-वे देवमूद हैं (श्लोक २३)। कुछ तरह-तरहके मुझे सुख देनेवाली हो ।' (श्लोक १४६-५०)। मनो. माधु-सन्यासी पाखण्डियोंके ही फन्दों में फंसे हैं विज्ञानकी दृष्टिसे भी यह सत्य है कि जब तक (श्लोक ४)। इनके उद्धारका एक ही मार्ग है- अध्यात्मकी ओर मनुष्यकी उसी प्रकार सहज प्रवृत्ति सच्ची दृष्टि, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचार । यही नहीं होती जैमी कामसुखकी ओर, तब तक धर्मपक्का धर्म है जिसका उपदेश धर्मेश्वर लोग कर साधनामें उसकी निश्चल स्थिति नहीं हो पाती। गए हैं काशी, ता.२८-२-१५५ जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित प्रन्योंकी प्रशस्तियोंको लिए हुये है। ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों परसे नोट कर संशोधन के साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीको ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण महत्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, प्राचार्यों और मद्वारकों तथा उनकी प्रकाशित रचनाओंका परिचय दिया गया है जो रिसर्चस्कालरों और इतिहास संशोधकोंके लिये बहुत उपयोगी है। मृन्य ४) रुपया है। मैनेजर वीरसेवा-मन्दिर जैन लाल मन्दिर, चाँदनी चौक, देहली.
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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