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________________ वीर सेवामन्दिरसे हाल में प्रकाशित समीचीन धर्मशास्त्र ( रत्नकरण्ड) का प्राक्कथन ( डा० वासुदेवशरणजो स्वामी समन्तभद्र भारतवर्णके महान् नीतिशास्त्री और तत्वचितक हुए हैं। जैन दार्शनिकों में तो उनका पद अति उच्च माना गया है। उनकी शैली सरल, संक्षिप्त और आत्मानुभवी मनीषी जैसी है। देवागम या आप्तमीमांसा और युक्त्यनुशासन उनके दार्शनिक ग्रन्थ हैं । किन्तु जीवन और आचारके सम्बन्ध में भी उन्होंने अपने रत्नकांड श्रावकाचारके रूपमें अद् भुत देन दो है। इस प्रन्थ में केवल १५० श्लोक हैं । मूलरूपमें इनकी संख्या यदि कम थी तो कितनी कम थी इस विषय पर ग्रन्थ के वर्तमान सम्पादक श्रीजुगलकिशोरजी ने विस्तृत विचार किया है। उनके मतसे केवल सात कारिकाएँ संदिग्ध हैं। सम्भव है मातृचेतके अध्यर्ध शतककी शैली पर इस ग्रन्थको भी श्लोकसंख्या रही हो । किन्तु इस प्रश्न का अन्तिम समाधान तो प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंका अनुसंधान करके उनके आधार पर सम्पादित प्रामाणिक संस्करण से सम्यक्तया हो सकेगा जिसकी ओर विद्वान् सम्पादकने भी संकेत किया है ( पृ० ८७)। प्रवाल प्रो० काशी विश्वविद्यालय ) ज्ञान हुआ तो उन्होंन कांचीपुरमें जाकर दिगम्बर नग्नाटक यति की दीक्षा ले ली और अपने सिद्धान्तोंके प्रचारके लिए देशके कितने ही भागोंकी यात्रा की । आचार्य जिनसेनने समन्तभद्रकी प्रशंसा करते हुए उन्हें कवि, गमक, वादी और वाग्मी कहा है । लंकने समन्तभद्रके देवागम प्रन्थकी अपनी अष्टशती विवृतिमें उन्हें भव्य अद्वितीय लोकचतु कहा है। सचमुच समन्तभद्रका अनुभव बढ़ा चढ़ा था । उन्होंने लोक-जीवनके राजा-रंक, ऊँच-नीच, सभी स्तरोंको आँख खोलकर देखा था और अपनी परीक्षणात्मकबुद्धि और विवेचना-शक्ति से उन सबको सम्यक आचार और सम्यक् ज्ञानकी कसौटी पर कसकर परखा था । इसीलिये विद्यानन्दस्वामीने युक्त्यनुशासनकी अपनी टीकामें उन्हें 'परीक्षेक्षण' ( परीक्षा या कसौटी पर कसना ही है आँख जिसकी ) की सार्थक उपाधि प्रदान की । समन्तभद्र के जीवन के विषय में विश्वसनीय तथ्य बहुत कम ज्ञात हैं । प्राचीन प्रशस्तियोंसे ज्ञात होता है कि वे उरगपुरके राजाके राजकुमार थे जिन्होंने गृहस्थाश्रमीका जीवन भी बिताया था । यह उरगपुर पांड्य देशकी प्राचीन राजधानी जान पड़ती है, जिसका उल्लेख कालिदासने भी किया है ( रघुवंश, ६।५६, अथोरगाख्यस्य पुरस्य नाथं ) । ४७४ ई० के गड्बल ताम्र शासन के अनुसार उरगपुर काबेरीके दक्षिण तट पर स्थित था (एपि० इं०, १०।१०२ ) । श्री गोपालनने इसकी पहचान त्रिशिरापल्ली के समीप उरैय्यूर से की है जो प्राचीन चोलवंशकी राजधानी थी । कहा जाता है कि उरगपुर में जन्म लेकर बड़े होने पर जब शान्तिवर्मा ( समन्तभद्रका गृहस्थाश्रमका नाम ) को स्वामी समन्तभद्रने अपनी विश्वलोकोपकारिणी वाणी से न केवल जैन मार्गको सब ओरसे कल्याणकारी बनानेका प्रयत्न किया ( जैनं वर्त्म समन्तभद्रुमभवद्भद्र ं समन्तान्मुहुः ), किन्तु विशुद्ध मानवी दृष्टि से भी उन्होंने मनुष्यको नैतिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिये बुद्धिवादी दृष्टिकोण अपनाया । उनके इस दृष्टिकोण में मानवमात्रकों रुचि हो सकती है । समन्तभद्रकी दृष्टि में मनकी साधना, हृदयका परिवर्तन सच्ची साधना है, बाह्य आचार तो आडम्बरोंसे भरे हुए भी हो सकते हैं। उनकी गर्जना है कि मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है । कारिका ३३ ) । किसीने चाहे चण्डाल-योनि में भी शरीर धारण किया हो, किन्तु यदि उसमें सम्यग्दर्शनका उदय हो गया है, तो देवता ऐसे व्यक्तिको देव-समान ही मानते हैं। ऐसा व्यक्ति भस्मसे ढके हुए किन्तु अन्तर में दहकते
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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