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________________ श्री हीराचन्दजी बोहराका नम्रनिवेदन और कुछ शंकाएँ (जुगलकिशोर मुस्वार) [गत किरयासे आगे] श्री बोहराजीने कानजीस्वामीके कुछ बाक्योंका भी (आत्मधमं वर्ष के ४ थे अंकसे ) प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है और अपने इस उपस्थितीकरणका यह हेतु दिया है कि इससे मेरी तथा मेरे समान अन्य विद्वानोंकी धारणा कानजीस्वामी के सम्बन्धमें ठीक सीर पर हो सकेगी। मैंने आपकी प्रेरणाको पाकर आपके द्वारा उद्धृत कानजीस्वामीके वाक्योंको कई बार ध्यानसे पढ़ा परन्तु खेद है कि वे मेरी धारणाको बदलने में कुछ भी सहायक नहीं हो सके; प्रत्युत इसके वे भी प्रायः असंगत और प्रकृत-विषय के साथ असम्बद्ध जान पड़े। इन वाक्यों को भी श्रीमोहराजीले डबल इन्वर्टेड कामाज़ -" के भीतर रक्खा है। और वैसा करके यह सूचित किया तथा विश्वास दिलाया है कि वह कानजीस्वामी उन वाक्योंका पूरा रूप है जो श्रात्मपृष्ठ १४१-१४२ पर मुद्रित हुए हैंउसमें कोई घटा-बढ़ी नहीं की गई है। परन्तु जाँचनेसे यह भी वस्तुस्थिति अन्यथा पाई गई, अर्थात् यह मालूम हुआ कि कानजीस्वामी वाक्योंको भी कुछ काट-छाँट कर रक्खा गया है— कहीं 'तो' शब्दको निकाला तो कहीं 'भी', 'डी' तथा 'और' शब्दों किया, कहीं शब्दोंको आगे-पीछे किया तो कहीं कुछ शब्दोंको बदल दिया, कहीं देश (-) को हटाया तो कहीं उसे बढ़ायाः इस तरह एक पेअके उद्धरण में १५-१६ जगह काट-छाँटको कम लगाई गई हो सकता है कि कार का यह कार्य कान स्वामीकं साहित्यको कुछ सुधार कर रखनेकी दृष्टिसे किया गया हो; जब कि वैसा करनेका लेखकको कोई अधिकार नहीं था क्योंकि उससे उद्धरणकी प्रामाणिकताको बाधा पहुँचती है। कुछ भी हो, इस काट-छोटके चक्कर में पड़ कर उद्धरणका अन्तिम वाक्य सुधारकी जगह उलटा विकारग्रस्त हो गया है, जिसका उष्टत रूप इस प्रकार है "जीवको पापसे खुराकर मात्र पुण्यमें नहीं लगा देना है, किन्तु पाप और पुरुष दोनोंसे रहित हायकस्वभाव बत जाना है। इसलिये पुण्य-पाप और उन दोनोंसे रहित ,— उन सबका स्वरूप जानना चाहिए ।" हम वाक्यसे रेखादि जानेके कारण बोहराजीके द्वारा उद्धृत वाक्य कितना बेढंगा बन गया है, इसे बतलानेकी ज़रूरत नहीं रहती । अस्तुः अब में कानजी - स्वामीके वाक्यों पर एक नज़र डालता हुआ यह बतलाना चाहता हूँ कि विषयके साथ वे कहाँ तक संगत है और काम जोस्वामी की ऐसी कौनसी नई एवं समीचीन-विचारधाराको उनके द्वारा सामने लाया गया है जो कि विद्वानोंकी चारथाको उनके सम्बन्धमें बदलनेके लिये समर्थ हो सके। धर्म; अपना प्रकृत विषय जिनशासन अथवा जैनधर्मके स्वरूपका और उसमें यह देखनेका है कि पूजा-दान वतादिके शुभ भावोंको अथवा सम्यग्दृष्टिके सरागचारित्रको वहां धर्मरूपसे कोई स्थान प्राप्त है या कि नहीं। श्री कुन्दकुन्द और स्वामी समन्तभद-जैसे महान धाचायों के ऐसे क्यों को प्रमाण में उपस्थित किया गया था जो साफ तौर पर पूजादान व्रतादिके भावों एवं सम्यग्दृष्टिके सरागचारित्रको 'धर्म' प्रतिपादन कर रहे हैं, उन पर तो श्री बोहराजीने 1 नहीं डाली अथवा उन्हें यों ही नज़रसे ओझल कर दिया-और कामजीस्वामी ऐसे वाक्योंकी उत करने बैठे हैं जिनसे उनकी कोई सफाई भी नहीं होती और इससे ऐसा मालूम होता है कि आप उन महान आचार्योंक वाक्यों पर कानजी स्वामीकं वाक्यों को बिना किसी हेतु ही महत्व देना चाहने हं । यह श्रद्धा-भक्तिकी अति है और ऐसी ही मनिके वश कुछ भक्तजन यहाँ तक कहने लगे है कि 'भगवान् महाबारक बाद एक कानीस्वामी ही धर्मकी सच्ची दशना करनेवाले पैदा हुए है, ऐसा सुना जाता है, मालुम नहीं यह कहाँ तक ठीक है । यदि ठीक है तो ऐसे भक्तजन, उत्तरवर्ती केवलियों तलियों तथा दूसरे धारी एवं भाषलिंगी महान् आचार्यों की अवहेलना अपराधी हैं। अस्तु “जीवको पापसे छुड़ा कर मात्र पुण्यमें नहीं लगा देना है किंतु पाप और पुण्य इन दोनोंसे रहित धर्म उन सब का स्वरूप जानना चाहिए।" जब कि कानजीस्वामी उक्त लेखमें वह निम्न प्रकारले कानजीस्वामीके जिन वाक्योंको उद्धृत किया गया है वे पाया जाता है पुण्य पाप और धर्मके विवेक सम्बन्ध रखते हैं। उनमें
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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