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श्रापको आचार-विचार
(पुजक सिद्धिसागर)
जो दर्शन मोहादिकको गलाता है, और सदृष्टिको प्रात या सग्रन्थको धर्म गुरु मानता है-वह वास्तवमें श्रावक नहीं कर पारमस्वरूपकी प्रतीति करता है, विश्वास करता है वह है-चूकि दर्शनमोहादिकको नहीं जलाने वाला या नहीं श्रावक कहलाता है-अथवा जो श्रद्धापूर्वक गुरुओंसे धर्मो- बहाने वाला भावक नहीं है-सम्यग्दर्शनादिकसे युक्त ही सुनता है वह श्रावक कहलाता है। और वह अल्प सावद्य- वास्तवमें श्रावक हैं शेष तो नाम मात्रसे या श्रावक धर्मोन्मुख आर्य और सावध आर्यके भेस दो प्रकारका है-जब तक उपचरित श्रावक हैं-यदि वे सचाईकी ओर या महिमाकी वह देश संयम या देश व्रत प्रहण नहीं करता है, तब तक मोर मुकना चाहते हैं तो उन्हें हिंसादि जैसे पाप कर्मोंका वह सम्यग्दृष्टि हिंसाको हेय समझते हुए भी सावध आर्य छोड़ना आवश्यक है । और अपनी “दा या विश्वासको नामका श्रावक कहलाता है किन्तु जब वह सागरधर्मको आगमानुकूल बनाना भी जरूरी है। बिना इसके वे श्रावक दर्शन प्रतिमा दकके रूपमें धारण करता है । तब वह अल्प नहीं कहला सकते । सावध आर्य नामके श्रावकोंमें परिलक्षित होता है कि वह श्रावक धर्मका विवेचन सबसे पहले हमें गौतम स्वामी संकल्पी हिंसाका जन्म भरके लिए नव कोटासे परित्यागकर देता के प्रतिक्रमणसूत्रमें मिलता है-इससे यह पता चलता है-वह इरादतन अस जीवोंकी हिंमा नहीं करता और ध्यर्थ है कि प्रचलित श्रावकधर्म कुछ हेर-फेरके साथम अक्षुण्ण स्थावर जीवोंका भी वध नहीं करता है-जब तक वस्त्रादिक रूपसे चला आ रहा है-वह संहननके अनुकूल भी हैंका त्याग नहीं होता है तब तक वह श्रावक-धर्म या ससंग दिगम्बर दर्शनके अनुसार श्रावकके आचार-विचार १२ प्रत सागार या विकल प्राचारवान या दशवती होता है या ११ प्रतिमा इत्यादिक रूपसे कुछ नामोंके हेर-फेरसे ज्यों का असंयमी किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करनेका पक्ष प्रत्येक त्यों बतलाया गया है-श्रापकके मूलधर्ममें अहिंसाका प्राशय श्रावकको होता है किन्तु संकल्पी या इरादतन हिंसा और ज्यों त्यों के रूपमें अक्षुण्ण बना हुआ है स्वामी समन्तभद्रका व्यर्थ स्थावर हिंसाको छोड़कर शेष हिमासे बह चर्याय बच श्रावकाचार जो वि.कीलगभग दूसरी तीसरी शताब्दीके प्रारंभ नहीं पाता । यद्यपि उससे वह बच ।। भी चाहता है और की रचना है बेजोड़ ग्रंथ हैं-वह अपनी शानी नहीं रखता हैबचनेके लिए यथा शक्य प्रयत्न भी करता है किसी भी यद्यपत्राशयमें शंष श्रावकाचारभी उसी प्राशयके अनुकूल हैंप्राणीको दुःख देने या संताने जैसा परिणाम वह नहीं करता: कोई भी श्रावकाचार अहिसाचार और सम्यग्ज्ञानके विरुद्ध किन्तु प्रारम्भ सभारम्भमें होने वाली अनिवार्य हिंसासे वह नहीं है। फिर भी कथनकी दृष्टिसे जो मौलिकता, प्रौढता बच भी नहीं पाता । उसके तो जैनधर्मकी ही पक्ष होती है गम्भीरता रत्नकण्डमें झलकती है। वह अन्य श्रावकाचारोंमें इसीसे वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है । परन्तु नैष्ठिक लक्षित नहीं होती, फिर भी उनमें चर्चित विषय अपनी-अपनी श्रावक अपनी निष्ठामें सुरद रहता है और व्रतोंका निष्ठा विशेषताओं के कारण मौलिक रूपमें मानना अनुचित नहीं है। पूर्वक अनुष्ठान करता है-उनका निर्दोष पालन करता हुआ वे अपन दश कालकी अपेक्षास
व अपने देश कालकी अपेक्षासे श्रावकाचार पर विशद प्रकाश अपना जीवन यापन करता है वह नैष्ठिक श्रावक या अल्प डालतं ही हैं। इससे स्पष्ट है कि आचार-विचारसे शुद्ध सावध मार्य भी वहा जाता है।
आर्यको श्रावक कहा जाता ह-यह आचार-विचार किसी
न किसी क्षेत्रमें अवश्य अनादिकालसे अक्षुण्ण बना हुआ है आर्य श्रावक धार्मिक विचारके अधीन या अनुसार गृहस्थ सेकि सर्य-चांद अनादिसे पाये जाते हैं भले ही वे कहीं भाचरणको अहिंसामय बनानेका प्रयत्न करता है-विचार
अप्रकट भी रहें। का सुधार ग़लत विश्वासके हटानेसे होता है-जो पदार्थ
ढाई हजार वर्षके वीचमें भी श्रावक धर्मका प्रभाव कर जैसे अवस्थित है उस से मान लेने पर वह निरस्ताग्रह विचारों और दराचारको चोट पहुँचाता रहा। अब भी वह सम्यग्दृष्टिसे युक्त होनेके कारण अपने विचारको सुधार लेता
। सुधार लता जीता जागता किसी न किसी उत्तम रूपमें हम लोगोंके टि है तब सम्यज्ञानी या सुधारक कहा जाता है।
गत हो रहा है-यदि श्वावक धर्म न होता तो भारतकी सभ्यजो हिंसामें धर्म मानता है-उसमें हितकी कल्पना करता तकी रक्षा वास्तवमें न होती यह श्रमणोंके निग्रन्थधर्मका है और सदोष रागीद्वेषी अज्ञानीको भात (देव) मानता है उपासक धर्म है-इसे श्रावक धर्म भी कहते हैं