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निश्चयनय व्यवहार नयका यथार्थ निर्देश
(श्री क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी)
निश्चयनय और व्यवहारनय क्या है, इनका क्या है। और यह व्यवहारका अवलम्बन लेकर ही होगा । जैसे स्वरूप है, और उनकी क्या दृष्टि है तथा पदार्थके मनन या कोई तुम्हारे पास यदि देहाती पुरुष भावे और वह सौदा अनुभव करने में उनसे क्या कुछ सहायता मिलती है। वे करने लग जाय तो जब तक तुम उससे देहाती न बोलोगे हमारे जीवनके लिये कितने उपयोगी है, साथही, उनका तब तक तुमसे पट नहीं सकता । अंग्रेजी भाषा भाषीले हमारी जीवन प्रवृत्तिसे क्या कुछ खास सम्बन्ध है या नहीं, अंग्रेजीमें ही बोलना पड़ेगा अन्यथा उसका पटना दुस्तर आदि सब बातें विचारणीय हैं । वास्तबमें निश्चय नय है। उसी प्रकार जब तक इन व्यवहारिक जनोंको व्यवहार वस्तुके यथार्य स्वरूपका ग्राहक है, वस्तुका वास्तविक स्वरूप नय द्वारा नहीं समझाया जायगा तब तक वे उस शुद्ध उससे ही ज्ञात होता है । निश्चयनय वस्तुके स्वरूपको प्रात्म तत्त्वको नहीं समझ सकने । यही कारण है कि व्यवअभेद, शुन्द्ध निर्लिप्त तथा निरपेक्षदृष्टिसे कहता है। किन्तु हार नयसे उस अभेदामक तत्वमें भेद-कल्पना की गई है। व्यवहारनय उममें भेद कल्पना कर उपचारसे कथन करता अतः निश्चनयका ज्ञान अनिवार्य है । विना निश्चयका भवहै। इस तरह अात्म-ज्ञान-प्राप्तिके लिये दोनों नयोंका यथार्थ लम्बन लिये केवल व्यवहार कार्यकारी नहीं है। जिस प्रकार परिज्ञान होना अत्यन्त जरूरी है । अनादि कालसे यह किसी मनुष्यको मार्गमें लुटा हुआ देखकर लोग कहते हैं कि मंमारी प्राणी व्यवहारमें मग्न है। अतः इनको अपने स्वरूप- यह मार्ग लुटता है। परन्तु विचारो, कहीं मार्गभी लुटा का कुछ भी बोध नहीं है। प्राचार्य कहते हैं कि जब तक करता है। उस मार्ग परसे चलने वाले यात्री लोग लुटा यह प्राणी निश्चयनयका आश्रय नहीं लेता, तब तक वह करते हैं किन्तु व्यवहारसे प्रेम कहा जाता है कि यह मार्ग मोक्षका अधिकारी नहीं होता । समयमारमें कहा है:- लुटता है । उसी तरह जीव वर्णादिवान् है ऐसा व्यवहार ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणो । होने पर भी जीवनमें वर्णादि नहीं हैं । वह तो केवल ज्ञान भूयस्थ मस्सिदो खलु मम्माइट्ठी हवई जीवो ।। धन ही है। इस प्रकार दोनों नयोंको यथार्थ समझ लेना - व्यवहार नय अभूतार्थ है - असत्यार्थ हैं और शुद्ध नय सम्यक्त्व है । और सर्वथा एक नयावलम्बी हो जाना भूतार्थ है-सत्यार्थ है। अतः जो शुद्ध नयाश्रित है वह मिथ्यात्व है। निश्चय सम्यग्दृष्टि है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'शुद्ध नय' क्या
यदि हम इन दोनों नयोंकी यथार्थ दृष्टिका उपयोगकर है? इसी बातका स्पष्टीकरण अग्रिम गाथा द्वारा प्राचार्य
अपनी श्रद्धाको तदनुकूल बनालें तो भइया अपना कल्याण करते हैं :
होना कोई बड़ी बात नहीं है। किन्तु हम एकका अवलम्बन जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ट अगएणयं णियदं। कर दूसरे को बिल्कुल ही छोड़ बैठते हैं, इससे हमारी दृष्टि अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।।
दूषित हो जाती है वह एकान्तकी तरफ चली जाती है। जो नय इस आत्माको प्रबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्यनिश्चल, और हम प्रारमहिनसे वंचित रह जाते हैं। प्रत. हमें केवल प्रविशेष तथा दसरेके संयोगसे रहित देखता है उसे ही शुद्ध एक नयका ही पाश्रय लेना उचित नही। किंतु उभयनयोंका नय कहते है।
यथार्थ परिज्ञान कर वर्तना अात्महितका साधक है। यही ___ यहां पर प्राचार्यको शुद्ध निश्चय नयका ज्ञान कराना श्रद्धा जीवन में उपयोगनीय है। -(दिर ली प्रवचनसे) ८० कोस तक चौबीस घण्टेमें फरमान पहुंचा देते किया जाता था, इन्हें 'कबूतर नाम बार' कहते थे थे। प्रोविंगटनके कथानुसार ये पैदल या पट्टामार और मण्डसे बरहानपुर तक वर्षा में ये कबूतर डेढ़से डाकिये' राज्यके कोने-कोने तक डाक पहुँचाते थे। ढाई पहरमें पहुँच जाते थे। वैसे साफ मौसम में एक ऐसा उल्लेख है कि जहांगीरके समयमें एक स्थानसे पहर या चार घड़ीमें ही पहुँच जाते थे। दूसरे स्थानको डाक भेजनेमें कबूतरोंका प्रयोग
-(नवभारतसे)