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________________ पं० जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवा (परमानन्द शास्त्री) हिन्दी जैन-साहित्यके गद्य-पद्य लेखक विद्वानों और इन परिचय-पद्योंसे मालूम होता है कि प्राप 'फागी' टीकाकारों में पं० जयचन्दजीका नाम भी उल्लेखनीय है। नामक ग्रामके निवासी थे। यह ग्राम जयपुरसे डिग्गीमाजपुरा आप उस समयके हिन्दी टीकाकारों में सर्वश्रेष्ठ विद्वान थे। रोर पर ३० मोलकी दूरी पर बसा हुआ है। वहां आपके श्रापका प्राकृत और संस्कृत भाषा पर अच्छा अधिकार था, पिता मोतीरामजी 'पटवारी' का कार्य करते थे। इसीखे यही कारण है कि आप उनको टीका करते हुए उन ग्रन्थोंके पापका वंश 'पटवारी नामसे प्रसिद्ध रहा है। दूसरे आपका प्रतिपाच-विषय पर अच्छा प्रकाश डालनेमें समर्थ होसके घराना वहां प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित समझा जाना था। उक्त हैं । जैनसिद्धान्तके माथ-साथ आपका अभ्यास दर्शन, काव्य, प्राममें आपने ११ वर्षकी अपनी अवस्था व्यतीत हो जाने व्याकरण और चन्दादि विषयका भी अच्छा जान पड़ता है। पर जैनधर्मकी ओर ध्यान दिया और उसीमें अपने हितको प्रापका अध्ययन, अध्यापनसे विशेष प्रेम रहा है। आपके निहित समझकर आपने अपनी श्रद्धाको सुदृढ़ बनानेका टीका-ग्रन्थों में विषयका स्पष्टीकरण और भाषाकी प्रांजलिता यत्न किया। अतएव जैनधर्मके महत्वपणं सैद्धान्तिक ग्रंथोंका देखते ही बनती है। आपने तत्वार्थसूत्रपर लिखी जानेवाली अभ्यास करनेका निश्चय किया; क्योंकि बिना किसी अध्यदेवनन्दी अपर नाम पूज्यपादकी तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) यन, मनन अथवा परिशीलनके वस्तुतत्त्वके अन्नःरहस्यका की हिन्दी टीका समाप्त करते हुए अन्तिम प्रशस्तिमें अपना परिज्ञान होना अत्यन्त कठिन है। साथ ही, जैनधर्म-विषयक परिचय निम्न पद्यों में व्यक्त किया है : भद्धाके शैवल्य अथवा कमजोरीको, जो आत्महितमें बाधक थी, और जिमसे संसार परिभ्रमणका अन्त होना संभव नहीं 'काल अनादि भ्रमन संसार, पायो नरभव मैं सुग्वकार । था, उसका परित्याग करदिया । उन्हीं दिनोंके लगभग जन्म फागई लयौ सुथानि, मोतीराम पिताकै आनि । सं० १८२१ में जयपुर नगरमें 'इन्द्रध्वजपूजामहोत्सव' का पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजाय तणू मकरंद। विशाल प्रायोजन किया गया था। उस समय यह उत्सव द्रव्यदृष्टि में देख जवै, मेरा नाम श्रातमा कयै ॥१२ गजपूतानेमें सबसे महत्वपूर्ण और चित्ताकर्षक था। उत्सवमें गोत लावडा श्रावक धर्म, जामें भली क्रिया शुभ कम। दर्शनीय रचना प्राचार्य नेमिचन्द्रसिद्वान्तचक्रवर्तीके ग्यारह वर्ष अवस्था भई, तब जिन मारगकी सुधि लही ॥१३ : त्रिलोकपारके अनुसार बनाई गई थी और मण्डपको विविध प्रान इष्टको ध्यान अयोगि अपने इष्ट चलन शुभ जोगि। उपकरणोंसे सजाया गया था। उक्त विशाल मण्डपमें पं. तहां दूजो मंदिर जिनराज, तेरापंथ पंथ तहां साज ॥५४ टोडरमल जी जैसे प्रखर विद्वान वक्ताके प्रवचन सुननेका देव-धर्म-गुरु सरधा कथा, होय जहां जन भाई यथा । खाम भाषण जो था। इसीसे उक्त उत्सवमें दूर-दूरसे तब मो मन उमग्या तहा चला,जो अपना करनाह भला५ जन-समृह उमड पड़ा था। अत: उक्त उत्सव में पं0 जयचंद जाय तहां श्रद्धा दृढ़ करी, मिथ्याबुद्धि सबै पारहरी। जी भी अवश्य ही पधारे होंगे और उस समय वहां जैननिमित्त पाय जयपुर में अाय, बड़ी जु शैली देखी भाय ॥१६ का जो उयोत या उसका महत्वपूर्ण प्रभाव गणी लोक साधर्मी भले. ज्ञानी पंडित बहुते मिल। हृदय-पटलमें अवश्य अंकित हुआ होगा और उससे उन्हें पहले थे बंशोधर नाम, धरै प्रभाव भाव शुभ ठाम ।।१७ जयपुर जैसी सुन्दर जगहमें रहकर अपने अभिमतको पूर्ण टोडरमल पंडित मति खरी, गोमटसार व नका करी। नेको प्रेरणा भी जल पीने ताकी महिमा सब जन करें, वाचे पढ़े बुद्धि विस्तरै ।।१८ उपके तीन-चार वर्ष बाद जयपुर अवश्य ही रहने लगे होंगे। दौलतराम गणी अधिकाय, पंडितराय राजमैं जाय। क्योंकि उस समय जयपुरमें गुणीजनोंका सुयोग मिलना ताकी बुद्धि लसै सब खरी, तीन पुराण वर्षानका करी ।।१६ स्वाभाविक था। वहाँ उस समयसे पूर्व विद्वगोष्ठीका अच्छा रायमल्ल त्यागी गृह वास, महाराम व्रत शील निवास। अमाव था और जैनग्रन्थोंके पठन-पाठन तथा तत्वचर्चादि मैं ह इनकोसंगति ठानि, बुधसारू जिनवाणी जानि ॥२० रा धर्मकेगास्यको समझने तथा are -सर्वार्थसिद्धि, नयामंदिरप्रति होनेका अवसर भी था, साधर्मीजनोंमें धर्मवत्सलता विद्य
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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