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________________ अनेकान्त । वर्ष १३ विवक्षा चाऽविवक्षा च विशेष्येऽनन्त-धर्मिणि । सतो विशेषणस्याऽत्र नाऽमतस्तैस्तदभिः ॥३५॥ (यदि यह कहा जाय कि विवक्षा और अविवक्षाका विषय तो अमनरूप है तब उनके आधार पर तत्वकी व्यवस्था कैसे युक्त हो सकती है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) अनन्तधर्मा विशेष्यमें विवक्षा तथा अविवक्षा जो की जाती है वह सत् विशेषणकी ही की जाती है असन्को नहीं और यह उनके द्वारा की जाती है जो उस विशेषणके अर्थी या अनर्थी हैं-अर्थी विवक्षा करता है और अनर्थी अविवक्षा | जो सर्वथा असत् है उसके विषय में किसीका अर्थीपना या अनर्थीपना बनता ही नहीं-वह तो सकल अर्थक्रियासे शून्य होनेके कारण गधेके सींगके समान होता है। प्रमाण-गोचरौ सन्तौ मेदाभेदौ न सवृती । तावेकत्राऽविरुद्धौ ते गुण-मुख्य-विवक्षया ॥३६॥ ___(हे वीर जिन ! ) भेद (पृथक्त्व ) और अभेद ( एकत्व-अद्वैत ) दोनों ( धर्म ) सतरूप हैं-परमार्थभूत है-संवृतिके विषय नहीं-कल्पनारोपित अथवा उपचारमात्र नहीं हैं। क्योंकि दोनों प्रमाण के विषय हैं। (इसीसे) आपके मनमें वे दोनों एक वस्तुमें गौण और मुख्यकी विवक्षाको लिये हुए एकमात्र अविरोध रूपसे रहते हैंफलतः जिनके मतमें भेद और अभेदको परस्पर निरपेक्ष माना है उनके यहां वे विरोधको प्राप्त होते हैं और बनते ही नहीं ।' (ऐसी स्थितिमें (१) सर्वथा भेदवादी बौद्ध, जो पदार्थोके भेदको हो परमार्थ सत्के रूपमें स्वीकार करते हैंभमेदको नहीं, अभेदको संवृति ( कल्पनारोपित) सत् बतलाते है और अन्यथा विरोधकी कल्पना करते हैं। (२) सर्वथा भमेदवादी ब्रह्माती आदि, जो पदाथोके अभेदको ही तात्विक मानते हैं-भदको नहीं, अवको कल्पनारोपित बतलात है और अन्यथा दोनोंमें परस्पर विरोधकी कल्पना करते हैं: (३) सर्वथा शून्यवादी बौद्ध, जो भेद और अभेद दोनांमसे किसीको भी परमार्थ सन्न रूपमें स्वीकार नहीं करते किन्तु उन्हें संवृति-कल्पनाका विषय बतलाते हैं। और (४) उभयवादी नैयायिक, जो भेद और पभेद दोनोंको सत् रूपमें मानते तो हैं परन्तु दोनोंको परस्पर निरपेक्ष बतलात हैं, ये चारों ही यथार्थ वस्तु-तत्वका प्रतिपादन करनेवाले सत्यवादी नहीं है। इन सबकी दृष्टिसे इस कारिकांक अर्थका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है:-) 'भमेव सत् स्वरूप ही है-संवृति ( कल्पना ) के विषयरूप नहीं क्योंक वह भेदकी तरह प्रमाणगोचर है । भेद सत् रूपही है-संवृतिरूप नहीं, प्रमाण गोचर होनेसे अभेदकी तरह । भेद और अभेद दोनों सत् रूप हैं-संवृतिके विषय रूप नहीं, प्रमाणगोचर होनेसे, अपने इष्ट तत्त्वकी तरह क्योंकि उन दोनोंको संवृतरूप बतलाने वालों (शून्यवादियों) के यहाँ भी सकलधर्म-विधुरत्वरूप अनुमन्यभावका सद्भाव पाया जाता है। (यहाँ इन दोनों पक्षोंके अनुमानोंमें जो बो उदाहरण हैं वह साध्य-साधन धर्मसे विकल ( रहित ) नहीं हैं। क्योंकि भेद अभेद और अनुभय एकान्तोंके मानने वालोंमें उसकी प्रसिद्धि स्याद्वादियोंकी तरह पाई जाती है । ) इस तरह हे वीर भगवन् ! आपके यहाँ एक वस्तुमें भेद और अभेद दोनों धर्म परमार्य सत्के रूपमें विरुद्ध नहीं हैं, मुख्य-गौणको विवक्षाके कारण प्रमाणगोचर होनेसे अपने इष्टतत्वकी तरह । और इसलिये सामर्थ्यसे यह अनुमान भी फलित होता है कि जो भेद और अमेद परस्पर निरपेक्ष हैं वे विरुद ही है, प्रमाणगोचर होनेसे भेदैकान्तादिकी तरह। इति द्वितीयः परिच्छेदः। • यह स्पष्टीकरण श्री विद्यानन्दाचार्यने अपनी अष्टसहस्ही-टीकामें "इति कारिकायामर्थसंग्रहः" इस वाक्यके साथ दिया है।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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