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अनेकान्त
वर्ष १३
मान थी। यद्यपि उस समय उन्हें ६० टोडरमल जी नहीं बनानेकी प्रेरणा की इमस पगिद्धत ज्ञानचन्दजीकी विद्वत्तामिले होंगे क्योंकि उनका दुग्बद-वियोग सं. १८०४ में का महज हो अनुमान लगाया जा सकता है। वास्तवमें किमी समय हो गया था, जो जयपुग्वामियों के लिए ही नहीं पण्डितजीका पुत्र भी उन्हीं जैसा ठोस विद्वान था। और किन्तु समस्त जैनसमाजके लिये दुर्भाग्यपूर्ण था: अस्तु, वह गो-वत्सके समान प्रेम रखकर बालकोंको विद्याध्ययन फिर भी जयपुरमें ५० दौलतरामजी काशलीवाल, ब्रह्म राय- कराता था । मलजी और शीलवती महारामजी, आदि विद्वज्जन थे ही मनालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द उनके प्रमुख जिनका सत्सङ्ग बड़ा ही लाभदायक था, उनसे तन्वचर्चादि शिप्य थे। जिनका परिचय फिर कभी कराया जायेगा। द्वारा वस्तुतत्वक अन्नः रहस्यको समझने या परिशीलनादि
पं. नन्दलालजीकी शास्त्राथमें विजय द्वारा उसके गुप्त मारके महत्वको प्रगटरूपम जाननेका सुअवसर प्राप्त था। अतः ५० जयचन्द्रजीने जयपुग्म रह
पण्डित नन्दलालजीक सम्बन्धमें कहा जाता है कि एक कर सद्धान्तिक ग्रन्थोंके अध्ययन एवं मनन द्वारा अपने
बार एक बड़ा विद्वान जयपुरके विद्वानोंको पराजित करनेकी ज्ञानको वृद्धि करनेका प्रयत्न किया और उक्त विद्वानांकी
इच्छास जयपुरमें आया।, परन्तु नगरका कोई भी विद्वान् गोष्ठीस जो लाभ मिल सकता था उसका भी पूरा लाभ
उससे शाम्बार्थ करनेके लिये प्रस्तुत नहीं हुआ। अनाव उठाया। और इस तरह अपनी ज्ञान-पिपासाको शान्त करने
जयपुरके विद्वानोंकी अर्कीर्ति न हो और राज्य-कीर्तिके साथ का उपक्रम किया। और कुछ वर्षोक पतन परिश्रम तथा
विद्वानोंकी विद्वत्ताकी छाप भी बनी रहे, इसके लिये कुछ मध्यवयाय द्वारा प्रापन जैन-सिद्धान्तके रहस्यका यथेष्ट
राज्य कर्मचारियों और विद्वान् पंचोंने 40 जयचन्दजीस परिज्ञान कर लिया। और वे अब समाजक शास्त्र-पभादि
उक्र विद्वानस शास्त्रार्थ करनेकी प्रेरणा की, और कहा कि कार्यों में भी यथेष्ट भाग लेने लगे थे। ६० जी क म्वभावमें
आप ही विजय पा सकते हैं, और नगरकी प्रतिष्ठाको जहां सरखना और उदारता थी, वहां उनका चारित्र भी अनु
कायम रख सकते है। अतः शास्त्रार्थक लिये श्राप चलें करणीय था, उनका रहन-सहन वेष-भूपा सीधा-मादा और
अन्यथा नगरकी ही ताहीन (बदनामी) होगी। क्योंकि खान-पानादि व्यवहार श्रावकाचिन था। वे विद्या-व्यसनी थे,
इस ननरको एक विदेशी विद्वान पगित कर चला जायगा,
उमसे इस नगरके विद्वानांकी प्रतिष्ठाको भी धक्का लगेगा। तब अतः उनके मकान पर विचारे इच्छुक विद्यार्थियोंका तांता
पलिनजीने उत्तर दिया कि में जयपगजयको दृष्टिस लगा रहता था। उनके कई प्रमुग्व शिष्य थे, जिन्होंने पंडित
किमान शास्त्रार्थ करने नहीं जा सकता, किन्तु श्राप लोगोंजीसे अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। प० जी मद्गृहस्थ थे और अपने पद एवं कर्तव्यका मदा ध्यान रखते थे।
वा यदि ऐसा ही अाग्रह है तो श्राप मेरे पुत्र नन्दलालको
ले जाइये, यह उससे शास्त्रार्थ करेगा। इस पर उपस्थित पुत्र ज्ञानचन्द्र
लोग पं० नन्दलालजीको ले गये। शास्त्रार्थ हुया और आपने अपने पुत्र ज्ञानचन्दको भी अच्छी तरह पढ़ा
तब नन्दलालजीन उस विदेशी विद्वानको युक्रि बलसे पगलिग्वा कर मुयोग्य विद्वान बना दिया था। और वह स्वयं
जित कर दिया। उसके परिणाम म्परूप राज्य तथा नगर पण्डित जी के साथ पठन-पाठनादि कार्योंमें महयोग देने
पंचोंकी अोरपे पं० नन्दलालजीको कुछ उपाधि मिली थी। लगा था, और समाजमें धीरे-धीरे उसकी विद्वत्ताकी छाप जमने लगी थी। उसके ज्ञानका विकास इतना अच्छा जैसा कि प्रमेयरत्नमाला प्रशस्तिके निम्न दोहे से प्रकट हैहो गया था कि वह अपने प्रतिवादीसं कभी पराजित नहीं लिखी यहै जयचन्दनै सोधी सुतनन्दलाल । हो सकता था। वह उन धार्मिक कार्योमें केवल पहयोग हा बुधलखि भूलि जुशुद्धकरि बांची सिखैवो बाल ॥१६॥ नहीं देता था किन्तु उनके द्वारा रचित टीका-प्रन्थोंके संशो- नन्दलाल मेरा सुत गुनी बालपनेते विद्यासुनी। धन कार्यों में भी अपना पूरा सहयोग प्रदान करता था। पण्डित भयो बड़ी परवीन, ताह ने यह प्ररणकीन ॥ चुनांचे पण्डितजीने स्वयं ही अपने पुत्र द्वारा टोकाओंके
-सर्वार्थसिद्धि प्रशस्ति संशोधनकी बात स्वीकार की है । और उस गुणी एवं बड़ा x तिनसम तिनके सुत भये बहुज्ञानी मन्दलाल । प्रवीण पण्डित भी बतलाया है। उसने भी टोक-ग्रन्थोंके गायवल्स जिम प्रेमको बहुत पढ़ाये बाल ॥-मूला. प्र.