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________________ किरण] प० जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवा [१७१ उसके सम्बन्धमें पं० जयचन्दजीने आवश्यक कर्तव्यमें प्रति पण्डितजीने जिन ग्रन्थोंका अध्ययन अपनी ज्ञान वृद्धि के फलस्वरूप उपाधि वगैरह का लेना उस कर्तव्य की महन्वा लिये किया था उनके नामादिकोंका उल्लेख उन्होंने सर्वार्थको कम करना है। इन्यादि वाक्य कहकर उस पदवीको सिद्धिकी टीका-प्रशस्तिमें कर दिया है। आपका शास्त्र ज्ञान वाधिम करा दिया। इससे पाटक पं. नन्दलालजीकी योग्य- अब विशेषरूपमें परिपक्व होगया-तभी आपने टीकाग्रन्थोंक ताको समझ सकते है कि वे कितने ठोस विद्वान थे। रचनेका उपक्रम किया, उपसे पूर्व वे उक्र ग्रन्थोंके अध्येता ही निष्काम कार्य करना ही मानव जीवनको महत्ता एवं बने रहे। श्रादर्श है । किमो दिन मुअवमर देखकर दोबान नमरचन्दजी- ग्रन्योंकी भाषा ने ६० नन्दलालजीमं कहा कि कानदोषम जीवोंकी बुद्धि, साप टोका-ग्रन्थोंकी भाषा परिमार्जित है और यह श्राधुनित्य क्षीण होती जा रही है। अतः माधु-प्राचारको व्यत्र निक हिन्दी भाषाके अधिक निबट है, यद्यपि उममें ढूंढाहड करने वाले अन्यकी अब नक कोई भाषा टीका नहीं देशवो भाषाका भी कुछ प्रभाव लक्षित होता है फिर भी है। इसलिये यदि मूलाचार (आनारांग) की हिन्दी उसका वि .सतम्प हिन्दीका ही यमुज्वल रूप है। यदि टोका बनाई जाय तो लोगोंका बहुत उपकार होगा। चुनांचे उसमस क्रियापदको बदल दिया जाता है तो उसका रूप म्व-पर-हितकी भावना रखकर यापन मूलाचारकी हिन्दी अाधुनिक हिन्दी भाषाम भी ममाविष्ट हो जाता है। पं. टीका बनानेका उद्यम किया । टीकाक लिखनेका काम उन्होंने जयचन्दजीक टीका ग्रन्थोंक दो उद्धरण नीचे दिये जारहे हैं अपने प्रिय शिष्यों पर (मुन्नालाल उदयचन्द माणिकचन्द पर) जिन प ठक उनको भाषाम परिचित हो सकेंगे। मांग, श्राप बोलते जान थे और वे लिखत जान थ। इस "बहुर वचन दोय प्रकार हैं, द्रव्य चेन, भाववचन । तरह ५१६ गाथायां तकको टीका हो पाई थी कि पं० महा वीर्यान्तराय मात श्रुनिज्ञानावरण कर्मक क्षयोपशम होत नन्दलालजीका असमयमें ही देवलोक होगया। उनके अस- अंगोपांगनामा नामकर्मके उदयतें प्रान्मा बोलनकी सामर्थ्य मयमें वियांग होनस पण्डितजी और सभी साधी भाहयांको होय, मो नी भाववचन है । मो पुद्रलकर्मक निमित्त से भया बड़ा दुख हुआ। बाद में उस टीकाको उनक सहपाठी शिप्य सातें पद्गलका कहिये । बहुरि तिम बोलनकी सामर्थ्य सहित ऋपभदामजी निगात्याने उसे पूरा किया। पण्डितजीक पुत्रका प्रा-मार कंठ तालु वा जीभ थादि स्थाननिकरि परे जे नाम घासाराम था, संभवतः वह भी अन्छे विद्वान रहे होंगे। पुदगल, ते वचन रूप परिण ये ने पुद्गल ही है । ते श्रोत्र पर उनके सम्बन्धमें मुझे कुछ विशप ज्ञात नहीं हो सका। इन्द्रियक विषय है, श्री इन्द्रियक ग्रहण योग्य नाही हैं। * तिनमा निज परहन लम्बि कही दीवान प्रवीन । जमैं घमाइन्द्रियका विषय गंध द्रव्य है, तिम घ्राणक रसादिक याण योग्य नाही हे तस।"-पर्वार्थसिद्धिीका ५-१६ कान-दीपनै नग्नको. होत बुद्धि नित बीन ॥ माधुतणों श्राचारको, भाषा ग्रन्थ न कोय । "जैसे इस लोकांवर सुवर्ण अर रूपा गालि एक ताने मृलाचारकी, भाषा जो जब होय ॥ किय एक पिडया व्यवहार होय है. न श्रामाक पर शरीर. तब उद्यम भापातणों, करन लगे नन्दलाल । के परम्पर एक गावगारको अवस्था हो.. एक पणाक। मन्नालाल श्ररु, उदयचन्द, माणिकचन्द जुबान ॥ प्याहार है, ऐम न्याहारमात्र ही करि अामा पर शरीरका नन्दलाल तिनमी कही, भाषा लिखो बनाय । मुकपणा है। बहुरि निश्चयतें एकपणा नाहीं है, जानें कहाँ अरथ टीका सहित, भिन्न भिन्न समझाय ॥ पाला गर पांडुर है स्वभाव जिनि का प्रया सुवर्ण भर रूपा है, पूरन षट् अधिकार कराय, पन्द्रह गाथा अस्थ लिग्वाय । तिनक जम निश्चय विचारिये नय अभ्यम्न भिन्नपणा करि सोलह अधिक पांच सही, सब गाथा यह संख्या लही। एक एक पदार्थपणाकी अनुपपनि है, नात नानापना ही है। अायुप पूरन करि गये, ते परलोक सुजान । से ही प्रात्मा पर शरार उपयोग अनुपयोग स्वभाव हैं। विरह बचनिकामें भया, यह कलिकाल महान् ॥ तिनिकै अन्यन्त भिनपणाने एक पदार्थपणाकी प्राप्ति नाहीं सब साधरमी लोककै, भयो दु.ख भरपूर । वाते नानाणा ही है। ऐसा प्रगट नय विभाग है।" अथिर लग्थ्यो संसार जब, भयो शोक तब दूर ॥ -समयसार २८ -मूलाचार प्रश. इन दो उद्धरणांस पण्डितजीकी हिन्दी गयभाषाका
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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