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________________ १७२] अनेकान्त [वर्षे १३ परिचय मिल जाता है। आपकी रचनाओं में प्रादि अन्त तात जुसार विन कर्ममल शुद्धजीव शुधनय कहें। मालके साथ ग्रन्थमें प्रत्येक अध्यायके अन्तमें वर्णित इस प्रन्थमाहिकथनीसबै, समयसार बुधजनगहै। विषयका सार खींचते हुए जो सबैया या दोहा कवित्स आदि इसी तरह ज्ञानार्णव ग्रन्थकी टीका करते हुए उसके पथ दिये हुए हैं उनके भी दो तीन नमूने नीचे दिये जारहे अन्तमें निम्न पद्य दिया है जिसमें ज्ञानावर्णवग्रन्थकी महत्ताहै जिनसे उनकी पद्य-रचनाका भी आभास मिल जाता है। का उल्लेख करते हुए लिखा है कि जो व्यक्ति ज्ञान समुद्रका पण्डितजीने अपनी सर्वार्थासद्धि टीकाके वें अध्यायके विचार करता है वह संसार-समुद्रसे पार हो जाता है। जैसा शुरूमें निम्न मङ्गल-दोहा दिया है। कि उनके निम्न सवैयाले स्पष्ट है:आस्रव रोकि विधानते. गहि संवर सुखरूप । 'ज्ञानसमुद्र नहां सुखनौर पदारथ पंकतिरत्न विचारो. पूर्वबन्धकी निर्जरा, करी नमू जिनभूप ॥१॥ राग-विरोध-विमोह कुजंतु मलीन करो तिनदूर विदारो। अध्यायको समाप्तिके बादका निम्न इकतीसा सवैया भी शक्ति सभार करो अवगाहन निर्मलहोय सुतत्त्व उधारो, पढ़िये जिसमें उक्त अध्यायमें चर्चित होनेवाले, संवर-नि, ठानक्रिया निजनेम सबै गुन भोजनभोगन मोक्षपधारो।' गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रका म्य- ज्ञानावर्णके छठवें अधिकारके अन्तमें एक छापय छन्दमें रूप निर्दिष्ट किया गया है। और उनके स्वरूप निर्देशके माथ उन अधिकारमें चचित विषयका सार कितने सुन्दर शब्दों में उनके स्वामित्वादि विषयका संक्षिप्त सार दिया हश्रा है- व्यक्त किया है: आस्रव निरोधरीति संवर सुबाधनीति कारण सप्ततत्त्व पढ्द्रव्य, पदारथ नव मुनि भाखे । विबोधगीत जानिये सुज्ञानतें । गुपति समिति धर्म जानू अस्तिकाय सम्यक्त्व, विषय नीक मन राखे । अनुप्रेक्षा मर्म, सहन परीषह परीस्या श्रम ठानिये उठा तिनको सांचे जान. आप-पर भेद पिछानहु । नतें । संयम संभारि करौ तप अविकार धरो उद्यम उपादेय है आप, आन सब हेय बखानहु ।। विचारि ध्यान धारिये विधानत । नवमां अध्याय यह सरधा सॉची धारकै मिथ्याभाव निवारिये। मांहि भाषे विधिरूप ताहि जानि धारि कर्मटारि पाची तब सम्यग्दर्शन पाय थिर है मोक्ष पधारिये ॥१ शिवमानते ॥१॥ इस तरह प्रायः सभी ग्रन्थों अधिकारान्तमें दिये हुए को कालोप तद्गत ग्रन्थके विवेच्य विषयका सार छोटेसे पद्यमें बड़ी खूबीमें सार खींचकर रखनेका उपक्रम पाया जाता है जिससे उन- के साथ अंकित करनेका प्रयत्न किया गया है। इन सब की कविता करनेकी प्रवृत्तिका भी सहज ही बोध हो जाता है। उद्धरणोंसे पाठक पंडितजीकी काव्य-प्रतिभाका सहज ही यद्यपि पदमंग्रहको छोड़कर उनका कोई स्वतंत्र पद्यात्मक ग्रन्थ अनुमान कर सकते है । वे हिन्दीकी तरह संस्कृत भाषामें भी अच्छे पद्योंकी रचना कर सकते थे। जो किसी प्रन्थके अनुवाद रूपमें प्रस्तुत न किया गया हो रचा पंडित जयचन्दजाके इन टीका-ग्रन्थोंका अध्ययन करके हुमा मालूम नहीं पड़ता | और रचा भी गया हो तो वह मेरे सामने नहीं हैं। फिर भी समयसार टीकाके मङ्गल पद्यका सैकड़ों व्यक्तियोंने लाभ उठाया है और उठा रहे हैं। इससे चतुर्थ 'छप्पय' छन्द ध्यान देने योग्य हैं जिसमें 'समय' पंडितजी द्वारा महा उपकारकी बात और कौन सी हो शब्दके अर्थ और नामोंका बोध कराते हुए समयमें मार भूत सकता ह?. जीव पदार्थको सुननेको प्रेरणा की गई है और जिम कर्म जीवनचयो और परिणति मलसे रहित शुद्ध जीव रूप सारको शुद्धनय कहता है उसी पंडितजी गृही जीवनसे सदा उदास और जिनवाणीकी का कथन उक्त समयसार नामक ग्रन्थमें किया गया है सेवामें अनुरक रहे हैं। पंडितजीकी जीवन-चर्याका उल्लेख जिसे बुधजन ग्रहण करते हैं । वह छप्पय इस प्रकार है:- करते हुए उनके शिष्य श्री ऋषभदासजो निगोत्याने मूला 'शन्द अर्थ अरुज्ञान समयत्रय आगम गाये। चार प्रशस्तिमें निम्न पद्य दिये हैं जिनसे पंडितजीकी परिमत सिद्धान्त अरु काल-भेदत्रय नाम बताये॥ यतिका सच्चा आभास मिल जाता है:इनहिं आदि शुभअर्थ समय वचके सुनिये बहु । 'तिनकी मति निरपक्ष विशाल, अर्थ समयमें जीव नाम है सार सुनहु सहु ।। जिनमत ग्रन्थ लखे गुणमाल ।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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