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किरण.]
पं० जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवा
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विषय-भोगसौं रहें उदास,
जयचन्द्र इति ख्यातो जयपुर्यामभूसुधीः । , जिन आगम को करें अभ्यास ॥ दृष्ट्वा यस्याक्षरन्यासं मादृशोऽपीडशी मतिः ॥१ न्याय छंद व्याकरण अरु, अलंकार माहित्य । यया प्रमाण-शास्त्रस्य संस्वाद्य रसमुल्वणं । मतकनीकै जानिक, कहें वैन जे सत्य ।। नैयायिकादिसमया भासन्ते सुष्ठु नीरसाः॥२ न्याय अध्यातम ग्रन्थकी, कथनी करी रसाल।
-प्रमाणपरीक्षा टीका टीका भाषामय करी, जामै सममैं बाल ॥ यहाँ यह बात विचारने योग्य है कि जब पं. जयचन्द्र
भव-भोगोंके प्रति वे केवल उदासीन ही नहीं रहे; जी अपना उदासीन जीवन विताने हुए समाज-सेवाके साथ किन्तु उनकी दृष्टि इन्द्रिय-जयके साथ आन्तरिक रागादिक जिनवाणोके उद्धार एवं प्रचारकार्यमें संलग्न थे, तब उनके शत्रुओंके जयकी ओर रही है । वे सांसारिक कार्योंसे परान्मुख गृहस्थ-सम्बन्धि खर्चकी पूर्ति कैसे होती होगी ? इस प्रश्नका रहकर घरमें जल-पकवत् अलिप्त एवं निस्पृह रहे हैं। उठना स्वाभाविक ही है; परन्तु इस प्रश्नका ममाधान कारक उनकी प्रात्म-परिणति अत्यन्त निर्मल थी और वह विभाव- वाक्य भी उपलब्ध है जिससे इस प्रश्नको कोई महत्व नहीं भावोंकी मरिताको शोषण करनेकी ओर रही है। प्राध्या- दिया जा सकता । यद्यपि पं० जी अत्यन्त मितम्ययी और बड़े त्मिकता तो उनके जीवनका अंग ही बन गई थी वे वस्तुतत्त्वका ही निस्पृह विद्वान थे। उनमें याचकजनों जैमी दीनवृत्तिका कथन करते हए अन्म-विभोर हो जाते थे। और समयसार सर्वथा अभाव था, उनका व्यक्रित्व महान और चरित उदार की सरस वाणीमें सराबोर हो उठते थे। वे इस बातका मदेव था। मालूम होता है कि जयपुरमें उस समय अनेक समृद्ध ध्यान रखते थे कि मेरी किमी परिणति अथवा व्यवहारसे जैनी थे। जो बड़े ही धर्मनिष्ठ उदार और राजकार्यमें दर किसी दूसरे साधर्मी या मानवको वाधा न पहुंचे। यही थे। यह बात खास तौरसे ध्यान देने लायक है कि उस समय कारण है कि उस समय तेरा-बीम गंथकी चल रही कशम- जयपुरमें राजा जगतसिंहजीका राज्य था, और कई जैनी कश रूप कर्दमके असहिष्णु तीव्र प्रवाहमें वे नहीं वहे, घे राज्यकीय दीवान (आमात्य) जैसे उच्च पदोंपर आसीन थे। सदा वस्तुस्थितिका विवेचन करते हुए विवादसे कोसों दूर उन्हीं दिनों दीवान बालचन्दजी छावड़ाके सुपुत्र रायचन्द्रजी रहे । उसके प्रति उनकी भारी उपेक्षा ही तेरा वीस-पंथ-भेद- चावड़ा दीवान पद पर प्रतिहित थे। और अमरचन्दजी सम्बन्धी कटुताको कम करनेमें सहायक हुई है। यद्यपि दीवान भी अपने पिता शिवजीलालजी दीवानके पद पर दूसरे लोगोंने अपने पंथके व्यामोहवश अकल्पित एव प्रकर- प्रतिष्ठित थे, जो बड़े ही धर्मात्मा, विद्वान, उदार और णीय अनोंके करानेमें जरा भी हिचकिचाहट नहीं ली। परन्तु दयालु थे। उनके अार्थिक सहयोगसे कई बालक विद्या उस विषम परिस्थितिमें भी तेरा-पंथके अनुयायियोंने बड़ी अध्ययन करते थे। इतना ही नहीं; किन्तु वे दीन दुखियोंशान्ति और सहिष्णुताका परिचय दिया । यही कारण है कि की हमेशा महायता किया करते थे। इसी तरह रायचन्दजी वे उत्तरोत्तर वृद्धि पाते गए । और उनकी रचनाएँ भी उभय छावड़ा भी धर्मवत्सलतामें कम न थे। इन्होंने . १ पंथमें लोकप्रिय होती गई। इससे विरोधाग्निकी धधकतो में एक जिनमन्दिर बनवाया था और उसमें चन्द्रप्रभु भगहुई वह भीषण ज्वाला बिना क्मिी प्रयासके शान्त हो गई। वानकी मूर्ति प्रतिष्ठित की थी। कहा जाता है कि उन दीवानयद्यपि उसके लिये कितनोंको अपने जीवनकी होली में जीके साथ पंडितजीकी घनिष्ठ मित्रता थी। बहुत सम्भव है कि मुलसना पड़ा । परन्तु उत्तरकालमें शान्तिके सरस एवं सुखद पंडित जीको उनसे कुछ आर्थिक सहयोग मिलता हो. क्योंकि वातावरणने उसे सदाके लिये भुला दिया।
___पंडित जयचन्दजीने स्वयं ही सर्वार्थसिद्धिकी टीकाप्रशस्तिमें आपके द्वारा विनिर्मित 'प्रमेयरत्नमाला' आदि दार्शनिक लिखा है कि उन रायचन्द्रजी छावड़ाके द्वारा स्थिरता प्राप्त टीका-ग्रन्थोंको देखकर पं० भागचन्दजी जैसे विद्वानोंको भी कर हमने यह वचनिका लिखी है। यथा .. साहित्यिक कार्य करनेकी प्रेरणा मिली है और दूसरे विद्वानों "नृपके मंत्री सबमतिमान् . राजनीतिमें निपुण पुराण। को भी गति-दान मिला है। पं. भागचन्द्रजीने तो उनके सबही नृपके हितकों चहें, ईति-भीति टारे सुख ल॥४ प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए जो पद्य दिये हैं इस प्रकार तिनमें रायचन्द गुण धरै, तापरि कृपा भूप अति करें।
ताकै जैन धर्मकी लाग, सब जैननिसूअति अनुराग ।