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अनेकान्त
। वर्ष १३ करो प्रतिष्ठा मंदिर नयो, चन्द्रप्रभजिन पापन थयौ। में समाप्त की है । इस ग्रन्थका दोहामय, पद्यानुवाद ताकरि पुण्य पढौ यश भयो सब जैनिनको मन हरखयो।॥ भी उपलब्ध है जो अभी तक अप्रकाशित है। ताके ढिंग हम थिरता पाय, करी वनिका यह मन लाय। चौथी टीका 'स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा की है, इसके
कर्ता स्वामिकुमार है। यह ग्रन्थ भी प्राक्कत भाषाका है, इस रेखांकित पंक्रिसे स्पष्ट ध्वनित होता है कि पंडितजी
इस ग्रन्थमें बारह भावनाओंका सविस्तार वर्णन है। यह की आर्थिक स्थिरता कारगा दीवन रायचन्द्रजी थे। इसीसे
टे'का भी सं० १८६३ में बनी है । . निश्चिन्त होकर वे टीकाका कार्य करनेम प्रवृत्त हो सके हैं।
पांचवीं टीका 'समयमार मूल और प्राचार्य अमृतचन्द अस्तु ।
कृत श्रामण्यानि नामक संस्कृत ठीकाकी वनिका है। यह टीका कार्य
टीका कितनी मुन्दर और विषयका स्पष्ट विवेचन करती है। पंडित जयचन्दजीने अनेक ग्रन्थोंकी टीकाएँ बनाई है। टीकाकाग्ने मूल और टीकाके अभिप्रायको भावार्थ आदि जिनका रचनाकाल मं० १९६१ में मं. १८७० नक पाया दाग बोलने का प्रयत्न किया है। ग्रन्थान्तमें टीका समाप्तिका जाता है। इन दश वर्की भीतर पंडितजीने अपनी संचित काल सं० १८६४ दिया हुया है। ज्ञानराशिके अनुभवको इन टीकाग्रन्थों में बडे भारी परिश्रम- संवत्सर विक्रमतरणू अष्टादश शत और । के माथ रग्बनेका उपक्रम किया है। इन सब टीकाग्रन्थों में चीसठि कातिक बदि दशै, पूरग्म ग्रन्थ गुठौर ॥३ सबसे पहली टीका मर्यार्थमिद्धि की है जो दवनन्दी अपरनाम छठवीं टीका 'देवागम' स्तोत्र या पानामांमा की है। पूज्यपादकी 'तत्त्वार्थवृत्ति' की है। इस संस्कृत भाष की जिस पंडितजीने बड़े ही परिश्रमसे अष्टसहस्री आदि संक्षिप्त, गूढ़ एवं गम्भीर वृत्तिका कंवल अनुवाद ही नहीं महान नर्क ग्रन्थोंका मार लेकर मं० १८६६ में बना है। किया किन्तु उसमें चर्चित विषयोंके स्पष्टीकरणार्थ तत्वार्थ- मातवीं टीका श्राचार्य कुन्दकुन्दके अष्टपाहुड नामक श्लोकवार्तिक आदि महान ग्रन्थों पर आवश्यक सामग्रीको प्रन्थ की है जिसके कर्ता प्राचार्य कुन्दकुन्द है। इनमें षट दे दिया है जिससे जिज्ञासुओंको वस्तु तत्त्वका यथार्थ बोध पाहुडकी संस्कृत टीका श्रुतसागर मूरिकी थी उसके अनुसार हो सके । इम टीकाको उन्होंने वि० सं० १८६१ में चैत्रसुदि और शेप दो पाहुड ग्रन्थोंकी-लिंगपाहाड और शानपंचमीके दिन समाप्त किया है। जैसा कि उनके निम्न पाहडोकी-बिना किसी टिप्पणके स्वयं ही की। और दोहेसे स्पष्ट है:
अन्तमें अपनी लघुता व्यक्त करने हए विद्वानोंमेंशाधनकी संवत्मर विक्रमतणू, शिखि रम-गज शशि अंक प्रेरणा की है। आपने यह टीका वि. म. १८६७ भादों चैत शुक्ल तिथि पंचमी, पूरगा पाठ निशंक ॥३७॥ मुदि १३ को बना कर समाप्त की है यथादूसरी टीका प्रमेयरत्नमालाकी है जो प्राचार्य माणियय
संवत्सर दश आठ सत सतठि विक्रम राय । नन्दिक 'परीक्षामुख' नामक ग्रन्थकी टीका है और जिसके
मास भाद्रपद शुक्ल तिथि तेरसि पूरन थाय ।। १५ ।। कर्ता लघु अनन्तर्य है, जिसे उन्होंने बदरीपाल वंशके सूर्य
आठवीं टीका 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थकी है जिम्मक कर्ता बैंजेय और नाणाम्बा पुत्र हीरपके अनुरोधसे बनाई थी।
प्राचार्य शुभचन्द्र हैं। यह योगका बड़ा ही सुन्दर एवं यह टीका भी न्यायशास्त्रके प्रथम अभ्यासियोंके लिये
सरस ग्रन्थ है। इस ग्रन्थकी घचनिका सं०१८६६ में उपयोगी है। इस टीकाको उन्होंने वि० सं० १९६३ में
बनाई गई है।
नौमी टीका भक्तामरस्तोत्रकी है जिसे उन्होंने सं० आषाढ सुदि चतुर्थी वुधवारको बना कर समाप्त किया है ।
। १८७० में पूर्ण किया है। ___ तीसरी टीका 'द्रव्यसंग्रहकी है, जिसके कर्ता नेमिचन्द्रा- -- चार्य हैं इस ग्रन्थमें छह द्रव्योंका सुन्दर कथन दिया हुश्रा
१-संवत्सर विक्रमतणू, अठदश शतपय माठ । है। इस ग्रन्थ को टोका भी उन्होंने वि० सं० १८६३
श्रावणवदि चौदसि दिवस, पूरण भयो सुपाठ ॥५॥
२-संवत्सर विकमतणू, अष्टादश शत जानि। * अष्टादशशत साठि त्रय, विक्रम संवत माहिं।
ब्रेसठि सावण तीजवदि, पूरण भयो सुमानि ॥ १२॥ सुकल असाढ सुचौथि बुध, पूरण करी सुचाहि ।
-स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा