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किरण ]
असंज्ञो जीवोंकी परम्परा
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इनके सिवाय, सामायिक पाठ (संस्कृत प्राकृत) यह ग्रंथ उसे सूचीमें अपूर्ण बतलाया है। भी अनतकीर्ति ग्रंथमाला बम्बईसे मुद्रित हो चुका है। शेष इन सब टीका ग्रन्थोंसे पंडित जयचन्दजीको साहित्यनिम्न ग्रन्थ अभी अप्रकाशित ही हैं। पत्र-परीक्षा, चन्द्रप्रभ- संवाका अनुमान लगाया जा सकता है। और उससे समाजचरित्रके द्वितीय न्यायविषयकसर्गकी टीका बनाई हैं। को क्या कुछ लाभ मिला या मिल रहा है यह बात उन पं० जयचन्द्र जीके पदोंकी पुस्तकका भी उल्लेख मिलता है। ग्रन्थोंकी स्वाध्याय करने वाले सज्जनोंसे छिपी हुई तथा उसका रचनाकाल सूचीमें १८७४ दिया हुआ है। पर नहीं है।
नोट:-इस लेखमें पृष्ठ १७० के प्रथम कालममें पुत्र नन्दलालकी जगह ज्ञानचन्द छप गया है कृपया उसे सुधार कर पढ़ें
असंज्ञी जीवोंकी परम्परा
(डा० होगलाल जैन एम० ए०)
(गत किरण ४-५-से आगे) विशेषावश्यक भाप्य (जिनभद्रगणि कृत ७वीं शताब्दि) परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, श्रोध और लोक ) कही में एकेन्द्रियादि जीवोंके अल्प मनका सद्भाव सुस्पष्ट ही गई है। किन्तु संज्ञी जीवोंमें इस थोड़ी सी विशेषता रहित स्वीकार किया गया है व द्वीन्द्रियादि जीवोंगे उसका तर- संज्ञाकी प्रधानता नहीं दी गई, क्योंकि जिसके पास एक तमभाव कहा गया है। इसके लिये निम्न गाथाएँ ध्यान देने पैसा रूप धन हो उले धनवान नहीं कहते और न मूतं शरीर योग्य हैं
होने मानस किसीको रूपगन् कहते। जिसके पास खूब जइ सरणासंबंधेण सरिणणो तेण सरिणणो सव्वे द्रव्य हो उसे ही धनवान कहा जाता है और रूपवान् भी एगिदियाइयाणवि जे सएगा दसबिहा भणिया ॥५८८।। वही कहलाता है जिसका रूप प्रशंसनीय होता है। इसी थोवा न सोहणाऽविय जे सा तो नाहिकीरए इहहं। प्रकार जिम जीवक महती और 'शोभना' अर्थात् सुविकसित करिसावणे धणवं न रूवयं मुत्तिमेत्तेणं ।। ५०६ ।। और विशंपनायुक्र संज्ञा होती है वही जीव ज्ञान संज्ञाकी जइ बहुदब्बो धणवं पसंथरूबो य रूबवं होड। अपेक्षा संशी माना गया है। जैसे-जिमकी प्रांखें खूब महईए सोहणाए य तह सरणी नाणसरणाए ॥५१॥ साफ न हों और प्रकाश भी कुछ मन्द हो तो उसे अविसद्धचक्खुणो जह णाइपयासम्मि रूवबिण्णाणं रूपका अर्थात् वस्तुकं रंग आदिका साफ-साप. शान नहीं हो असणिणो तहऽत्थे थोवभणोदव्वलद्धिमओ ॥१४॥ सकता, उसी प्रकार जिसको थोड़ीसी ही मनाद्रव्यलब्धि जह मुच्छियाइयाणं अव्वतं सविसयविएगाणं प्राप्त है ऐसे असंज्ञी जीवको वस्तुका अस्पष्ट बोध होता है। एगिदियाण एवं सुद्धयरं बे इंदियाईणं ॥ ५१५॥ तथा जिम प्रकार मुक्ति अर्थात् बेहोश हुए संज्ञी जीवोके तुल्ले छेयगभावे जं सामत्थं तु चक्करयणस्स । सब विषयोंका विशेष ज्ञान अव्यक्त होता है, उसी प्रकार
तु जहक्कमहीणं न होइ सरपत्तमाईणं ॥ ५१६॥ एकन्द्रिय जीवोंके जानना चाहिये। उनसे कुछ शुद्धवर ज्ञान इय मणोविसईणं जा पडुया होई उम्गहाईसु। द्वीन्द्रिय जीवोंके पाया जाता है और इसी क्रमस वह ऊपरके तल्ले चेयणभावे अस्सएगीणं न सा होइ ॥५१७॥ जीवोंके बढ़ता हुआ पाया जाता है।' जे पूण संचितेउं इट्ठाणिट्ठसु विसयवत्थूसु।
इन गाथाओंमें आगम, युक्ति और दृष्टान्तों द्वारा न वहति णियट्रति य सदेहपरिपालणाहेउं ।। ५१८ ॥ वल एकेन्द्रिय जीवोंमें भी अल्पसज्ञाका सद्भाव स्वीकार
'अर्थात् यदि संज्ञाका सम्बन्ध होनेसे ही जीव संज्ञी किया गया है, किन्तु स्पष्ट रूपसे उनके "थोक्मणोकहे जावें तो समस्त जीव संज्ञो होंगे, क्योंकि, एकेन्द्रियादिक दव्यलद्धी" अर्थात् थोड़े द्वन्य मनका अस्तित्व भी माना जीवोंके भी दश प्रकारकी संज्ञा (पाहार, भय, मैथुन, गया है।