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________________ भव्य मार्गोपदेश उपासकाध्ययन (तुल्लक सिद्धिसागर) मौजमाबाद (जयपुर) के शास्त्र भण्डारमें कवि जिनदेव प्रन्थ कर्ताने उन यशोधर कविके सान्निध्यसे सिद्वाम्ब, द्वारा रचित 'मार्गोपदेश उपासकाध्ययन' नामका एक संस्कृत आगम, पुराण चरित प्रादि अन्योंका अध्ययन किया । प्रन्थ अपूर्णरूपसे उपलब्ध है, क्योंकि उसका ११वां और अपने ज्ञानकी वृद्धि की थी इससे स्पष्ट है कि जिनदेवके विद्या १५वां पत्र उपलब्ध नहीं है और प्रति अत्यन्न जीर्णदशामें गुरु यशोधर कवि थे । और कवि अपने बनाये हुए ग्रंथको है। १४ पत्र तक ही प्राप्त हैं । इस ग्रन्थमें ७ परिच्छेद या मुनियों और भव्योंके द्वारा शोधनीय बतलाया है। जैसा कि अध्याय उपलब्ध हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं:- उसके निम्न पद्यसे प्रकट है:____ व्यसन परित्याग, सप्ततत्त्वनिरूपण, दर्शनाचार, व्रत- एतानि अन्यानि मया श्रुतानि यशोधरश्रे-िठमुदाहृतानि । निर्देश, सामायिक व ध्यानपद्वति विचार, एकादशपतिमा तद्बोधबुद्धनकृतमायं तं शोधनीयं मुनिभिश्चभव्यैः ।। वर्णन और ग्रंथकार व गुरु वंशपरिचयादि । इन परिच्छेदोंमें कविके गरु यशोधरका वंश परिचय अधिकारक्रमस विषयका कथन संक्षिप्नरूपमें दिया हुआ है। पाक्षानरूपम दिया हुआ है। यशोधरक वशका शांत-कुन्थ और अरहनाथ तीर्थकर चक्रग्रन्थका आदि मंगल पद्य इस प्रकार है वर्ती राजाचोंके वंशके साथ कुछ सम्बन्ध रहा है । उस वंशमें 'नत्वा वीरं त्रिभुवनगुरु देवराजाधिवंद्यं, वद्धमान नामका एक राजा हुया जिसने अपनानित एवं दुखी काराति जगति सकलां मूलसंघ दयालु । होकर अपने देश ग्राम और राज्यादिका परित्यागकर और ज्ञानः कृत्वा निखिलजगतां तत्त्वमादीपु वेत्ता, कुटुम्बियों, मित्रों, सेनापतियों और मंत्रिगणोंसे क्षमा मांगी, धर्माधर्म कथयति इह भारते तीर्थराजः ॥ और उन सबको उसने भी क्षमा किया। और कहा कि मैं ग्रन्थके छटवें अध्याय या परिच्छेदका अन्तिम पुप्पिका- जंगल में जिन दीक्षा लेने जा रहा हूँ। वाक्य निम्न प्रकार है : यह सब ममाचार जानकर कुछ लोगोंने कहा कि श्रापने हारक श्रा जिन- योग्य बिचार नहीं किया है। क्योंकि भिक्षा वृत्तिसे मान चन्द्रनामादिने जिनदेव विरचिते धर्मशास्त्र एकादश प्रतिमा और पाखामी व्रतोंका अनुष्टान । विधानकथनं नाम षष्ठमः परिच्छेदः ॥ सकता और उसके फलसे म्फर्मा इककी प्राप्ति भी की का इस ग्रन्थके कर्ना कवि जिनदेव हैं, जो नागदेवके सकती है। पुत्र थे । और जो दक्षिणापथके 'पल्ल' नामक देशमें अनन्त बद्धमान अपने वंशकी वृद्धिके लिये, सौराष्ट्र स्थित भामर्दकपुरक निवासी थे । वह गर बहुन देशकभी नगरीमें पहुंचे, और वहां वणिक् वृत्तिसं तथा ऊँचे-ऊंचे ध्वज प्रासादों और उङ्ग जि मन्दिरोसे चक्रेश्वरी देवींक वर प्रसाद विपुलधन उपार्जन किया और मुशोभित था, और गम्भीर चंचल लहरों वाले विशाल जिन मंदिर बनवाया. और उसमें शांतिनाथकी मूर्ति स्थापित तालाबोंसे अलंकृत था । उस नगरका राजा बल्लाल की। परंत वहाँक राजा पृथ्वीराजने कहा कि मंदिरादिके निर्माणनामका था। कवि जिनदेवने उसारके देहभागीले विरक्त का तम्हारा यह यश ध्रव नहीं हो सकता-वह पुगर को नहीं होकर सजनोंके लिये इस ग्रंथकी रचना की है। कविने यह * लीलया यशाधेन व्याख्यानं कथितं जन । प्रय यशोधर श्रेप्टीके प्रसादसे बनाया है। तेन बोधेन बुद्धवानां कवित्वं च प्रजायते ॥ २७४ ॥ x भरतक्षेत्र मध्यस्थं, देशं तु दक्षिणापथं । तस्य प्रसादन महापुराणं रामायणं भारत-वीर काव्यं । विषयं विधं पल्लाख्यं श्रामर्दकपुर ततः ॥१२॥ सुदर्शनं सुन्दर काव्य युक्त, यशोधरं नागकुमार काव्यं । चरित्रं वसुपालस्य चन्द्रप्रभु जिनस्य च । उत्तु'गैर्बहुभिश्चैव प्रासादैर्धवलगृहः । चक्रिणः शान्तिनाथस्य वद्ध मानप्रभस्य च ॥ २६ ॥ शोभितं हमार्गेपु बल्लालनृपरच्यतां ॥१॥ चरित्रं च परांगस्य श्रागमं ज्ञानमर्णवम् । तत्र वाम्मदके रम्ये जिनदेवो वणिग्वरः । श्रात्मानुशामनं नाम समाधिशतकं तथा ॥ २७७ ॥ बर्द्धमानवरे गोत्र नागदेवांगसंभवः ॥१२॥ पाहुडत्रय विख्यातं संग्रह द्रव्य-भावयोः ।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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