SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण] भव्य मार्गोपदेश उपासकाध्ययन [१७७ दे सकता, और तुम उसे छोड़कर बनमें चले जाओगे । इसके धारा नगर्या वर राजवंशे वीरालयालंकृत वीरभद्र। पश्चात् वर्द्धमानने क्रुद्ध होकर कहा कि राजा लोग धनश्री ज्ञात्वा-गजेन्द्रारव्यपुराधिपोऽयं सपृजितो मानधनैश्चरत्न।। के मदमें चूर रहते हैं। परन्तु में इस तरहका अहंकारी नहीं निजनामांकितं तत्र पुरागोत्रज्ञयान्वितम । हूँ। और उस शहरमें अपना रहना अयोग्य समझकर अपने कृतं तं वर्ततेऽद्यापि बर्द्धमान पुरं महत् ।। २१२॥ बन्धुओंके लिये स्वतन्त्र नगर बसानेका निश्चय किया । और तस्मिन् वंशे महाशुद्धे दुर्गसिंहनरोत्तमः वह कुद्ध होकर वहां से अपने पूर्वजोंके साथ निकल पड़ा। उग्रादित्योहितज्जातस्तत सुनो देवपालकः ॥२६॥ और मालव दशमें स्थित धारानगरीमें पहुँचा। वहांके राजा देवपालसुतो जातः स्थानपेः श्रेष्ठिरुच्यते । गजेन्द्रसिंहने उनका सन्मान किया और वहां उसने अपने तत् प्रसूता त्रयो पुत्रा धनशो पोमणस्तथा ॥ २६४ ।। नामसे 'बर्द्धमान' नामका एक नगर बमाया । उसी वंशमें दुर्ग- लाखण श्रेष्ठि विख्यातो इन्द्रो शीलंयुतान्वित । सिंह, उग्रादित्य, देवपाल, जो वहांक प्रसिद्ध धेठी कहलाते नन सुनोहि महाप्राज्ञः यशोधर'........॥५॥ थे। देवपालक तान पुत्र थे, धनश पोमण और लाग्वण । उत यशोधर श्रेष्ठी बड़ा भारी विद्वान , राजमान्य वक्रा इनमें लाखण श्रेष्ठी इन्द्रक समान वैभवशाली था । और कवि और वैद्यनाथ था-वद्द जैनागमका तत्ववेत्ता और उसका पुत्र यशोधर उक्त कवि हुया है ! जैसा कि ग्रन्थ गत शास्त्रदान अभयदानका दनेवाला था। उसने सप्ततत्त्व निरूउनके निम्न पद्योंसे प्रकट है : पण' नामका एक ग्रन्थ भी बनाया था, जो अभी तक अनुपतद्वंशजातो वरवर्द्धमान, सनिजितो बन्धुजनैरुदारः लब्ध है । और जिसकी खोज होनेकी जरूरत है । जैसाकि तेन स्वयं लज्जितमानसेन, त्यक्त स्वराज्यं पुरदेशयुक्त ग्रन्थके निम्न पद्योंसे प्रकट है :म्वगोत्र-मत्रवभिः शनैश्च.द्विगुणश्वसेनापति,मंत्रिवर्गः भव्यः पितृव्यो वरभव्यबन्धुभव्येश्वरो भव्यगणापणीयः सर्वे क्षमंत क्षमयामि सर्व, अहं वने प्रबजिनो भवामि इंद्रत्वये इंद्रतरो विधिज्ञः पामर्दक श्रेष्ठ यशोधराख्यः।। तत्मर्वमाकर्ण्य तपाभव ये,स्वलजया स्नेहवशाच्चकचित् स एव वल्ला सच राजपूज्यः स एव वैद्यः सच वैद्यनाथः सर्व मिलित्वा भणितं अयोग्य,नत्यंचभिक्षाटनमानभंगात् स एव नागनतत्त्ववेत्ता, स एव शास्त्राभय दानदाता ।। त्वया सह प्रबजिता भवंति,म्वगोत्र मित्रा गुरु बन्धुवर्गा: यशोधरकवेः सत (शुद्ध) सप्ततत्वनिरूपणम् । तदा च देशे प्रसरेतिबार्ता,अशक्तभावाञ्च तपो वनस्थाः वसंततिलका प्रोक्त दृष्ट वा तं पि कृतं मया ॥ ग्रहस्थिनैलंबितमात्मतत्वैः, मम्यक्त्वशीलवतसंयुतैश्च ग्रन्थका चूकि अन्तिम १५वा पत्र उपलब्ध नहीं है। स्वोऽपि माशी भवति क्रमेण,निःसंशय पूर्वेजिनोतमेतत् संभव है उसमें उसका रचनाकाल भी दिया हुश्रा हो, परन्तु निज वंशोद्धरणार्थ च वणिग्वृत्तिश्च तैर्वना उसके अभावमें यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जामकता कि शरावयं इति ज्ञात्वा प्राप्ता सौराष्ट्र मंडलम यह ग्रन्थ रमुक समयमें रचा गया है। सौराष्ट्र बलभीनगर्या वाणिज्यरूप कृतमादरेण प्रस्तुत ग्रन्थ कवि जिनदवने भट्टारक जिनचन्द्रक नामांचक्रेश्वरी देविवर-प्रसादात् मुमाधको मिद्धरसाऽपि सिद्ध किन किया है । जिससे ज्ञात होता है कि भट्टारक जिनचन्द्र द्रव्येणेव जिनेन्द्र-मन्दिरवरं स्थापितं सुन्दरम् । ऋविक दीक्षागुरु रहे हो। और उनके उरकारसं उपकृत होनक तं दृष्ट वा खरवैरि दर्पमथना पृथ्वाश्वरी जल्पते। लिये यह प्रथ उनके नामांकित किया गया हो । सं० १२२६ यत्पुण्यं वर शांति देव निलकाज्जातं तदेवाध्र वम । के विजोलियाके शिलालेखमें भहारक जिनचन्द्रका उल्लेख पुण्यं नैव ददाति यास्यसि वनं त्यक्त्वा च देश पुरम् ।। किया गया है। तं ज्ञात्वा वरवर्द्धमानवणिको, क्रुद्धोप्यं जल्पते । हां, ग्रन्थमें भामर्दकपुरके राजा बल्लालका नामोल्लग्य राजन-राजकुले धनश्रियमदे तिष्ठामि नोहं सदा। जरूर किया गया है। यदि प्रस्तुत राजा बल्लाल मालवाना कर्तव्यं निजनामसुन्दर पुरमाज्ञाश्वगोत्रान्वितम् । राजा है, जिसकी मृत्यु सन् ११११ वि० सं० १२०८ से उवासं सम मिश्रितेन भवने देशं मदीयं पुरम ||२८१ पूर्व हुई थी। तब यह ग्रन्थ १२वीं शताब्दीके अन्तिम समय इति क्रु द्धो तदाकाले नि सृतो पूर्वजेः सह । में और १३वीं शताब्दीके प्रारम्भमें रचा हुआ हो सकता है प्राप्तो मालवं देशं रसधामपुरान्वितम् ।। २६०॥ और यदि भामर्दकपुरके राजा बल्लाल कोई दूसरे ही हैं
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy