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________________ अनेकान्त [ वर्षे १३ तब इस प्रथका रचनाकाल विचारणीय है। इसी तरहक अनेक ग्रन्थ अभी ग्रन्थ भण्डारमें पड़े हुए हैं, जिनके उद्धारार्थ समाजका कोई लक्ष्य नहीं है। उसे इंट चूना और पत्थर आदि अन्य कामोंमें रुपया लगानेसे अवकाश भी नहीं है, फिर वह ग्रन्थोद्धार जैसे महान कार्यमें कैसे खर्च करे। समाजकी लापरवाहीसे बहुतसा बहुमूल्य साहित्य विनष्ट हो चुका है। अतः समाजको चाहिए कि वह अपनी गादनिद्राका परित्याग करे और जिनवाणीके संरक्षण एव जैन-ग्रंथोंके उद्धारार्थ अपनी शक्नुसार धनका सदुपयोग करे। कुमुदचन्द्र भट्टारक (के. भुजबली शास्त्री) 'प्र.कान्न' वर्ष १३, किरण ४ (४-५ संयुक्त किरण) रकदेव कारकलके भट्टारक नहीं थे। क्योंकि कारकलमें उस से 'चन्देल युगका एक नवीन जैन प्रतिमालेग्व' शीर्षकसे समय भट्टारककी गद्दी ही स्थापित नहीं हुई थी। वहाँ पर प्रो० ज्योतिप्रसाद जैन. एम पु०, एल० एल० बी०, लखनऊ गद्दी मन् १७६२ में (हिग्य भैरवदेवके शासन कालमें) का एक लेख प्रकाशित हुश्रा है। इस लेख में आपने विन्ध्य स्थापित हुई। साथ ही साथ कारकल गद्दीका स्थायी नाम प्रदेशान्तर्गत अजयगढ़के अजयपाल सरोवरक पश्चिमी तट पर ललितकीनि है। दूसरी बात है कि उक्त शान्तिनाथ जिनालय बने हुए इंटोंके एक ध्वम घेरेके भीतर लखनऊ विश्वविद्या- प्राचार्य कुमुदचन्द्र के द्वारा निर्मित नहीं हुआ था। किन्तु लयक इतिहास प्राध्या क डा. आर० के० दीक्षितको लग- स्थानीय श्रावकोंके द्वारा । यह शान्तिनाथ देवालय जिमक भग तीन वर्ष पूर्व प्राप्त एक खण्डित तीर्थकरकी प्रतिमा शासनकालमें निर्मित हुआ था, वह लोकनायरस नहीं; भासन पर वि० सं० १३३९ ई. १२७४ के एक लेख पर परन्तु लोकनाथ अरम और इसका वंश साबार नहीं; किन्तु विचार किया है। प्रस्तुत लेखमें प्रो. साहबने लेखान्तर्गत सांतर था । यह सांतर वंश लगभग ७वीं शताब्दीसं ही प्रतिष्ठा कार्य से सम्बन्धित प्राचार्य धनकीर्ति और श्राचार्य हंबुजमें शासन करने लगा था। कुमुदचन्द्र इन दोमेंसे प्राचार्य कुमुदचन्द्रको ढूंद निकालन- एक निशिष्ट बात यह है कि कारकल में हिरियगडिक का प्रयग्न करते हुए पाँच कुमुद चन्द्रोंका संक्षिप्त परिचय हानेके भीतर बायीं ओर दक्षिण दिशामें आदिनाथ अनन्त. 'अनेकान्त' के पाठकोंक समक्ष जो रखा है उन पांचोमसे नाथ और धर्म-शान्ति-कुथु तीर्थकरोंके तीन मन्दिर हैं। पांचवें कुमुदचन्द्रक सम्बन्धमें आपका यह मत है। अन्तिम मन्दिरके बगल में बहुत छोटा एक और मन्दिर है। इसमें क्रमशः निम्नलिम्वित व्यकियोंकी मूर्तियां और उन ___'पांचवें कुमुदचन्द्र भट्टारकदेव सम्भवतया कारकलके मूर्तियों के नीच नाम दिये गये है। मूर्तियों इस प्रकार हैभट्टारक थे। वे मूलसंघ कानूग्गणके प्राचार्य थे और भानु (१) कुमुदचन्द्र भट्टारक (२ हेमचन्द्र भट्टारक (३) चारुकीर्ति मलधारीदेव के प्रधान शिष्य थे। इनके द्वारा निर्मित कीर्ति पण्डितदेव (४) श्रुतमुनि (५) धर्मभूषण भट्टारक शान्तिनाथ बमदि नामक जिनालयको कारकलके सान्न र (६) पूज्यपाद स्वामी । नीचेकी पनिमें क्रमशः (१) विमलनरेश लोकनायरसके राज्यकालमें सन् १३३४ ई० में राजा सूरि भट्टारक (२) श्रीकीति भट्टारक (३) मिहान्तदेव (४) की दो बहिनों द्वरा दान किये जानेका उल्लेख एक शिला चारुकीर्तिदेव (१) महाकीति (६) महेन्द्रकीर्ति । लेखमें मिलता है। इस प्रकार उपयुक इन व्यकियोंकी मूर्तियाँ छह-छह प्रो० साहबकी उपयुक पंक्रियों में जो त्रुटियां रह गई के हिसाबसे तीन-तीन युगलके रूपमें बारह मूर्तियाँ खुदी हैं उन त्रुटियोंको सहृदयभावसे बताना हो मेरी निम्नलिखित मिलती है। इन बारह मूर्तियोंमें प्रथम मूर्ति ही प्रो० साहबपंक्तियांका एकमात्र उद्देश है । आशा है कि मान्य प्रो० साहब के द्वारा 'अनेकान्त' में प्रतिपादित कुमुदचन्द्र भट्टारककी इससे असन्तुष्ट नहीं होंगे। मेरा अभिप्राय, कुमुदचन्द्र भट्टा- मालूम होती है। - :
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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