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________________ ३२० अनेकान्त (वर्ष १३ चित शास्त्र भंडारके प्रन्योंकी छानबीन की है और उसमें धनिकोंने अपने धनसे अनेकान्तकी सहायता की है वे उक्र ग्रन्थ नहीं मिले ! क्या इससे यह समझ लिया जाय अवश्य ही मेरे तथा संस्थाके द्वारा भन्यवादके पात्र हैं-उनके कि विद्वानों अथवा समाजको इन ग्रन्थोंकी ज़रूरत नहीं है ? सहयोगके बिना कुछ भी नहीं बन सकता था। धनसे नहीं ऐसा नहीं समझा जा सकता । समाजको ही नहीं किंतु सहायता करनेवालोंमें ज़्यादातर अनेकान्तके संरक्षक और देश और साहित्यके इतिहासको इनकी और इन जैसे दूसरे सहायक सदस्य है। सच पूछा जाय तो.इनके भरोसेपर हा भी कितने ही अनुपलब्ध प्रन्थोंकी बड़ी जरूरत है- बंद पड़े अनेकांतको फिरस चालू किया गया था और इन्हींके साहित्य तथा इतिहास-विषयके विद्वान तो इन ग्रथोंके दर्शन- आर्थिक सहयोगको पाकर उसके चार वर्ष निकल गये हैं। के लिये बहुत ही लालायित हैं । जब इन ग्रंथोंकी बड़ी अन्यथा, समाजमें माहित्यिक रुचिके प्रभाव और सत्साहित्यके जरूरत है तब इनकी खोजका प्रयत्न भी समाज-द्वारा कुछ प्रति उपेक्षाभावको लेकर, ग्राहक संख्याकी कमोके कारण बड़े पैमाने पर और व्यवस्थित रूपसे होना चाहिए- उसे कभोका बन्द कर देना पड़ता। विदेशोंकी लायबेरियों में भी इनकी खोज कराई जानी मुझे खेद है कि इस वर्ष मेरे सहयोगी बाबू जयचाहिये, जहाँ भारतके बहुतसे ऐसे ग्रन्थ पहुंचे हुए हैं भगवानजी, एडवोकेट अपनी कुछ परिस्थितियोंके वश, अपना जिनकी अभी तक सूची भी नहीं बन पाई है । मैं तो कोई भी लेख पाठकोंकी भेंट नहीं कर सके, जिससे पाठक अवधिको समाप्ति पर यह सोच रहा था कि यदि अवधिके उनके बहुमूल्य विचारोंसे वंचित ही रहे ! दूसरा खेद यह बाहर भी किसी परिश्रमशील सजनने इन ग्रन्थोंमेंसे किसी- है कि कलकत्ताके सेठ तोलारामजी गंगवाल (लाडनूं वाले) की भी खोज लगाकर मुझे उसकी सूचना की तो मैं तब भी गत सितम्बर मासमें २५१) रु. देकर अनेकान्तके संरक्षक बसे पुरस्कार दूंगा। अब मैं इतना और कर रहा हूँ कि बने थे, जिनकी सहायताकी रकम हिसाबमें दर्ज होगई, द्वितीय भादों के अंत तक खोज-विषयक परिणामकी और रसीद भेजी जा चुकी परन्तु आफिस-क्लर्ककी ग़लतीसेप्रतीक्षा करूँ, उसके बाद अपनी निर्धारित रकमके विषयमें पिछली किरणों में उनका नाम संरक्षकोंकी सूची में दूसग विचार किया जायगा। भादोंका महीना धर्म साधन- प्रकाशित नहीं किया गया और न अनेकान्तकी किरणें ही का महीना है और ऐसे सदज्ञान प्रसाधक ग्रंथरत्नोंकी खोज सेठ साहबके निर्देशित पते पर लाडनूं भेजी गई। इसके धर्मका एक बहुत बड़ा कार्य है अतः विद्वानों तथा दूसरे लिए में भारी दुःख व्यक्त करता हुआ सेठ साहबसे क्षमा सज्जनोंसे निवेदन है कि वे इस महीनेमें इन ग्रन्थोंकी चाहता है। प्राशा है वह क्लर्क की इस भूलके लिये मुझे खोजका पूरा प्रयत्न करें और अपने प्रयत्नके फलसे मुझे अवश्य ही क्षमा करेंगे। शोघ्र सूचित करनेकी कृपा करें। तीसरा खेद यह है कि यह संयुक्र किरण, जो २२ जून को प्रकाशित हो जानी चाहिये थी, आज दो महीनेके बाद ३. अनेकान्तकी वर्षसमाप्ति और कुछ निवेदन- अगस्तमें प्रकाशित हो रही है ! इसके विलम्ब-कारणको इस संयुक्त किरणके साथ अनेकान्तका १३वाँ वर्ष समाप्त यद्यपि कुछ न कहना ही बेहतर है, फिर भी मैं इतना ज़रूर हो रहा है। इस वर्ष भनेकाम्तने, समाजके राग-द्वेष और कह देना चाहता हूँ कि मैंने बीमारीकी अवस्थामें रोग-शय्या कगड़े-टंटोंसे अलग रह कर, अपने पाठकोंको क्या कुछ सेवा पर पड़े-पड़े पं० परमानन्दजीको यह सूचना कर दी थी कि की, कितने महत्वके लेख उनके सामने रक्खे. कितने नूतन इस रिण में अनेकान्तका वार्षिक हिसाब जरूर जायगा और माहित्यके सृजनमें वह सहायक बना, साहित्य और इतिहास- कुछ संपादकीय भी लिखा जायगा परंतु हिसाब तय्यार नहीं विषयकी कितनी भूल-भ्रान्तियोंको उसने दूर किया, उन- हो सका और न सम्पादकीय ही किसीके द्वारा लिखा जा झनोंको सुलझाया और कितने अपरिचित पुरातन साहित्य सका! हिसाबको पं. परमानन्दजीके देख-रेख में पं० जय और विद्वानोंका उन्हें परिचय कराया, इन सब बातोंको कुमारजी लिखते और रखते थे, गत अप्रैल माससे उनकी यहाँ बतलानेकी जरूरत नहीं है-सहृदय पाठक उनसे नियुक्रि बिल्डिंगके कार्यमें करदी गई थी, बिल्डिगके कार्योंसे भले प्रकार परिचित हैं। यहाँपर मैं सिर्फ इतना ही कहना अवकाश न मिलने आदिके कारण उन्होंने कह दिया कि चाहता हूँ कि जिन विद्वानोंने अपने लेखोंसे और जिन मुझे हिसाबके काममें योग देनेके लिये अवसर नहीं मिल
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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