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________________ अहमः विश्वतत्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ६) एक किरण क नीतिक्रोिषवसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त सितम्बर वर्ष १३ वीरसेवामन्दिर, दरियागंज, देहली किरण ३ आश्विन वीर नि० संवत २४८०, वि. संवत २०११ १६५४ समन्तभद्र-भारती ढेवागम अभावकान्त-पक्षेऽपि भावाऽपह्नव-वादिनाम् । विरोधान्नोभयेकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । बोध-वाक्यं प्रमाणं न केन साधन-दूपणम ॥ १२॥ अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति नर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ॥१३॥ 'यदि अभावकान्तपक्षको स्वीकार किया जाय-यह (भावैकान्त और प्रभाकान्त दोनोंकी अजग-अलग माना जाय कि सभी पदार्थ सर्वथा असत्-रूप है-तो मान्यतामें दोष देखकर) यदि भाव और अभाव इस प्रकार भावोंका सर्वथा अभाव कहने वालोंके यहाँ दोनोंका एकात्म्य (एकान्त ) माना जाय, तो स्याद्वाद(मतमें) बोध (ज्ञान) और वाक्य (भागम) दोनोंका न्यायके विद्वेषियोंके यहा-उन खोग के मतमें जो ही अस्तित्व नहीं बनता और दोनोंका अस्तित्व न अस्तित्व-नास्तिस्वादि सपतिपत धर्मों में पारस्परिक अपेक्षा बननेसे (स्वार्थानुमान, परार्यानुमान भादिके रूपमें) को न मानकर उन्हें स्वतन्त्र धर्मों के रूप में स्वीकार करते कोई प्रमाण भी नहीं बनता; तब किसके द्वारा अपने है और इस तरह स्थावाद-नीतिके शत्रु बने हुए है-वह अभावकान्त पक्षका माधन किया जा सकता और एकात्म्य नहीं बनता; क्योंकि उससे विरोध दोष आता दूसरे भाववादियों के पक्षमें दूषण दिया जा सकता है-भावैकान्त अभावैकान्तका और प्रभावकान्त भाषैहै?-स्वपक्ष-साधन और पर पक्ष-दूषण दोनों ही घटित कान्तका सर्वथा विरोधी होमेसे दोनोंमें एकात्मता घटित न होनेसे प्रभावकान्तपक्ष-वादियोंके पचकी कोई नहीं हो सकती।' सिद्धि अथवा प्रतिष्ठा नहीं बनती और वह सदोष ठहरता (भाव, प्रभाव और उभय तीनों एकान्तोंकी है। फलतः प्रभावकाम्तपरके प्रतिपादक सर्वज्ञ एवं महान् मान्यतामें दोष देख कर ) यदि अवाच्यता (प्रवक्तव्य) नहीं हो सकते। एकान्तको माना जाय-यह कहा जाय कि बस्तुतस्व
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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