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________________ १४६ । भनेकान्त वर्ष १३ D साके देखने में पाया हो तो क्रपया हमें भी बतलाने की सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है? कृपा करें। श्री कानजी स्वामीका प्रवचन द्रव्यदृष्टि प्रधान एवम् श्री मुख्तार सा० ने उपसंहारमें एक ऐसा वाक्य लिखा अधिकारतः शुद्ध निश्चयनयको लिये हुए होनेके कारण उसमें है कि जिसे पढ़ कर मैं एकदम स्तब्ध रह गया। लिखा है- कभी-कभी एकान्तकी सी गन्ध भले ही झलकने लगती "यह चौथा सम्प्रदाय किसी समय पिछले तीनों सम्प्रदायों हो, क्योंकि लगभग सभी प्रवचनोंमें निश्चयनयकी मुख्यता(श्वे० दि० तथा स्थानकवासी) का हित शत्रु बनकर भारी को जिये हुए विवेचन होता है। लेकिन वहाँसे अब तक संघर्ष उत्पन्न करेगा और जैनसमाजको वह हानि पहुंचाएगा जो सिद्धान्त प्रन्थ प्रकाशित हुए है (समयसार-प्रवचनसारजो अब तक तीनों सम्प्रदायके संघर्षों द्वारा नहीं पहुंच सकी नियमसार-अप्टपाहुड जो आदि २) उसमें कहीं भी एकांत है क्योंकि तीनों सम्प्रदायोंकी प्रायः कुछ ऊपरी बातों में निरपेक्ष विवेचन हमारे देखने में तो नहीं पाया। अन्यधर्ममें ही संघर्ष है भीतरी सिद्धान्तकी बातों में नहीं।" भी कई बार पाप पुण्य व धर्मके अन्तरको स्पष्ट करते हुए कितने पाश्चर्यकी बात है कि जिन श्वे. तथा स्थानक- उन्होंने पुण्यको पापसे अच्छा बतलाते हुए यही लिखा है कि वासी सम्प्रदायके भागममें देवगुरु धर्म (रत्नमय) का स्वरूप बन्ध तत्वकी अपेक्षा दोनों समान होते हुए भी पाप भावसे ही अन्यथा वर्णित है और जिसका श्री टोडरमलजी सहश तो पुण्य भाव अच्छा ही है। इस पर भी यदि हमारी महान विद्वानने जोरदार शब्दों में लगभग ३२ पृष्ठोंमें खंडन समाजके विद्वानोंको उनके किसी भी प्रवचन तथा लेखमें किया है उसीके लिये यह लिखना कि तीनों सम्प्रदायोंमें एकान्तकी गन्ध पाती हो तो उन्हें इस विषयमें अवश्य प्रायः कुछ ऊपरी बातोंमें ही संघर्ष है-वस्तुस्थितिसे कितना लिखा जाय-लेकिन इस ढंगसे कदापि नहीं जैसा कि विपरीत है। यह पाठकगण विचार करें । जहाँ देवगुरु धर्म उपरोक्त लेखमें अपनाया गया है। व रत्नत्रयका स्वरूप ही अन्यथा हो वहाँ मूलमें ही भेदरहा इस लेखमें मुझसे यदि कोई त्रुटि रह गई हो तो में या उपरी बातोंमें ? क्या यह भेद नगण्य है क्या यह भारी क्षमा चाहता हूँ। हकीम श्रीकन्हैयालालजीका वियोग! आपका प्रमुख हाथ रहा आपका प्रमुख हाथ रहा है और उसके लिए उन्होंने कभी कष्टोंकी परवाह नहीं की। अनेक बार जेल यात्रा स्वयं की, हकीम श्री कन्हैयालालजी वैद्यराज कानपुरसे जैनसमाज और आपकी धर्म-पत्नी भी उससे अछूती नहीं रहीं। इस भलीभांति परिचित है। कानपुरक लोकप्रिय धाामक व्याक्त तरह समाज और देश-सेवामें श्रापका प्रमुख हाथ रहा है। थे। उन्होंने सबसे प्रथम दिगम्बर जैन समाजमें छात्रोंको कुछ वर्ष हुए जब आप कार्यवश सरसावा पधारे थे, तब आयुर्वेदकी परीक्षाओं में उत्तीर्ण कराकर अनेकों वैद्य बनाए आपने अपनी यह इच्छा व्यक्त की थी कि पंडित हरपाल कृत हैं। भाई सुन्दरलाल जो श्रादि उनके पुत्रोंके पत्रसे यह जान प्राकृत वैद्यक ग्रंथका हिन्दी अनुवादके साथ सम्पादन करनेका कर अत्यन्त खेद व दुःख हुआ कि उनका गत ५ नवम्बरको मेरा विचार है, और उसकी दो तीन गाथाओंका अर्थ भी स्वर्गवास हो गया है। उन्होंने मुझे सुनाया था, पर वे प्राकृत भाषासे विज्ञ वैद्यजी ख्यातिप्राप्त और अपने कार्य में निष्णात वेध नहीं थे। मैंने उन्हें उन गाथाओंका जब शुद्ध रूप बतलाया थे। उन्होंने स्वयं ही अपनी योग्यता और अध्यवसायसे तब उन्हें बबी प्रसखता हुई हुई, और १०-१५ दिन सरसावा अर्थोपार्जन किया। आपका 'चाँद औषधालय' कानपुरमें ठहरकर उस ग्रंथको सांगोपांग बनाने की इच्छा प्रकट की। प्रसिद्ध औषधालय है जिसमें उच्च कोटिका आयुर्वेदिक पर अन्य कार्यों में फंसे रहनेके कारण वे अपनी उस इच्छाको औषधियोंका निर्माण होता है । वैद्यजी बने ही सहृदय और पूरा नहीं कर सके। परोपकारी थे।, उनमें धर्मवत्सलता और स्नेह पर्याप्त मात्रामें विद्यमान था । आयुर्वेदमें उनकी अच्छी गति थी। भापके आपके निधनसे एक अनुभवी समाज-सेवी ब्यक्तिकी द्वारा शिषित अनेक वैद्य आज भी सफलता के साथ चिकि- कमी हो गई है हमारी भावना है कि दिवंगत प्रात्मा परलोक साका कार्य संचालन कर रहे हैं। पापको शिक्षाले विशेष में शुख-शान्ति प्राप्त करे, और पारिवारिक सज्जनोंको हार प्रेम था, यही कारण है कि मापने पुत्र-पुत्रियोंको उच्च वियोग जन्म दुःखको सहने की समता प्राप्त हो । शिक्षाले सम्पन किया है। देशके स्वतन्त्रता आन्दोलनमें भी -परमानन्द जैन
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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