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________________ ८] अनेकान्त [ वर्षे १३ और अस्ति-नास्त्यवक्तव्य हैं वे भी यथोक्तनयके योगसे लिए हुए है। उन धर्मों में से किसी एक धर्मके अङ्गी नेतव्य है-हले तीन भंगोंको जिस प्रकार विशेषणत्वात् (प्रधान) होने पर शेष धर्मोंकी उसके अथवा उस हेतुसे अपने प्रतिपक्षीके साथ अविनाभाव सम्बन्धको लिए समय अंगता (अप्रधानता) हो जाती है-परिशेष सब हुए उदाहरण-सहित बतलाया गया है उसी प्रकार ये शेष धर्म उसके अङ्ग अथवा उस समय अप्रधान रूपसे विवक्षित भंग भी जानने अथवा योजना किये जाने के योग्य हैं। (इन होते हैं। भंगोंको व्यवस्था) हे मुनीन्द्रः-जीवादि तत्वोंक याथात्म्यका एकाऽनेक-विकल्पादावृत्तरत्राऽपि योजयेत। मनन करनेवाले मुनियोंक स्वामी वीरजिनेन्द्र ! -आपके शासन (मत) में कोई भी विरोध घटित नहीं होता है- प्रक्रिया मङ्गिनीमेनो नयनय-विशारदः ॥२३॥ क्योंकि वस्तु अनेकान्तारमक है। 'जो नय-निपुण है वह (विधि-निषेधमें प्रयुक) एवं विधि-निषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । इस भंगवती ( सप्त भगवती) प्रक्रियाको आगे भी एक नेति चेव यशाकारितिरिका अनेक जैसे विकल्पादिकम नोंके साथ योजित कर जैसे सम्पूर्ण वस्तुतत्व कथचित् एकरूप है, कथंचित् अनेक • 'इस प्रकार विधि-निषेधमें जो वस्तु अवस्थित रूप है, कथंचित् एकाऽनेकरूप है, कथंचित् अवक्रव्यरूप है, (अवधारित) नहीं है-सर्वथा आस्तित्वरूप या सर्वथा कथंचित् एकावनव्यरूप है, कथंचिदनेकावक्रव्यरूप है और नास्तित्वरूपसे निर्धारित एवं परिगृहीत नहीं है-वह अर्थ कथंचिदेकाऽनेकाऽचक्रव्यरूप है। एकत्वका अनेकत्वके माय, कियाकी करनेवाली होती है। यदि ऐसा नहीं माना और अनेकत्वका एकत्वके साथ अधिनाभावमम्बन्ध है और जाय तो बाह्य और अन्तरंग कारणोंसे कार्यका निष्पन्न निष्पन्न इसलिये एकत्वके बिना अनेकत्व और अनेकत्वके बिना एकस्व होना जो माना गया है वह नहीं बनता-सर्वथा सत्रूप नहीं बनता। न वस्तुतत्त्व सर्वथा एकरूपमें या सर्वथा अनेकया सर्वथा असतूरूप वस्तु अर्थक्रिया करनेमें असमर्थ है, रूपमें व्यवस्थित ही होता है. दोनोंमें वह अनवस्थित है और चाहे कितने भी कारण क्यों न मिलें, और अर्थ-क्रियाके तब ही अर्थक्रियाका कर्ता एकत्वादि किमी एकधर्मके अभावमें वस्तुतः वस्तुत्व बनता ही नहीं।' प्रधान होने पर दूसरा धर्म अप्रधान हो जाता है। धर्म धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्त-धर्मणः। [इसके आगे अद्वतादि एकान्तपक्षोंको लेकर, उनमें अङ्गित्वेऽन्यतमांतस्य शेषांतानां तदाता॥२२ दोष दिखलाते हुए, बस्नु-व्यवस्थाके अनुकूल विषयका स्पष्टी 'करण किया जायगा।] ___ 'अनन्तधर्मा धर्मी के धर्म-धर्ममें अन्य ही अर्थ इति प्रथमः परिच्छेदः।। संनिहित है-धर्मीका प्रत्येक धर्म एक जुद ही प्रयोजनको -'युगवार' का निष्पन्न बनता होता है. चन्देलयुगका एक नवीन जैन-प्रतिमालेख (सं०-प्रो. ज्योति प्रसाद जैन एम. ए. एल. एल. बी., लखनऊ) विन्ध्य प्रदेश में अजयगढ़ एक प्राचीन नगर है। इसे राजा इंटॉक एक ध्वंस रेके भीतर लम्बनऊ विश्वविद्यालयके इतिअजयपालने बसाया था। पर्वतके शिग्वर पर एक सुदृढ़ कोट हास प्राध्यापक डा० आर० के० दीक्षितको लगभग तीन वर्ष युक्त दुर्ग बना हुआ है । इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिये एक हुए, प्रस्तुत लेख एक स्खण्डित तीर्थकर प्रतिमाके आसन पर के बाद एक, पांच फाटक पार करने पड़ते हैं । निलेके भीतर, अविन मिला था। प्रतिमाका ऊपरी भाग गायब था, खंडित पहाड़को काटकर दो कुण्ड बने हुए हैं, जिन्हें गंगा और अधोभाग एवं भासन ही अवशिष्ट था। श्रासन पर लेखके यमुना कहते हैं। इनमेंसे एक अजयपाल सरोवरके नामसे मध्य एक पक्षीका चिन्ह बना हुआ था। चौबीस तीर्थंकरों में प्रसिद्ध है। से पाँचवें तीर्थकर सुमतिनाथका ही लौछन एक पक्षी-अर्थात् अजयगढ़के इस अजयपालसरोवरके पश्चिमीतट पर बने हुए चक्रवाक् है । अतः यह प्रतिमा तीर्थकर सुमतिनाथको हो
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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