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________________ किरण ४ ] अनुमानित की जाती है। चन्देलयुगका एक नवीन जैन प्रतिमा लेख नके साथ ही तीन पंक्रियोंका जो संक्षिप्त लेख है वह निम्न है प्रथम पंक्ति - ॐ सम्वत् १३२१ वर्षे फाल्गुवाद 11 बुधे श्री मूलमंधे प्रथित द्वितीय पंक्ति-मुनि कुन्दकुन्दः श्रीमद् वीरचर्मदेव राज्ये श्राचार्य घनकीर्त्तिः तृतीय पंक्ति श्राचार्य कुमुदचन्द्र प्रतिष्ठाका लेख नागरी लिपि तथा संस्कृत भाषाका है, संदिप्स और त्रुटिन है। किन्तु इससे इतना स्पष्ट है कि विक्रम सम्वत् १३३१ (सन् १२०४ ई०) को फाल्गुणवदि ११ बुधवारको उपरो जिनेन्द्र प्रतिमा की प्रतिष्ठा, संभवतः अजयगढ़में हो, सूत्रगंध कुम्कुम्दाम्ययके आचार्याने वीर बर्मदेव राज्य में कराई थी से सम्बंधित जिन दो आचार्योका नाम लेखमें पढ़ा जाता है वे प्राचार्य धनकीर्णि और आचार्य चन्द्र है। । ... , अजयगढ़ त्रिन्यभूमि -- वर्तमान बुन्देलखण्डके जिस भागमें अवस्थित है वह उस कालमें जेजाकभुक्तिके नामसे प्रसिद्ध था। वर्तमान मीति या जुम्झौत उमीका अपन है। जेजाकभुक्ति प्रदेश पर उसकालमें चन्देल वंशका राज्य था । चन्देलोंकी राजधानी खजुराहो (बजूरपुर ) अपनी सुन्दरता, समृद्धि तथा अपने अभूतपूर्व विशाल खूब उत्कृष्ट मनोरम कलापूर्ण जैन शैव और वैष्णव देवालयोंके लिये सर्व प्रसिद्ध थी। इस वंशकी नींव स्वीं शताब्दी ईस्वी पूर्वार्ध ( अनुमानतः ८३ ई० में) नन्नुक नामक चन्देल बीरने डाली थी। चन्देल अनिके अनुसार चंद राजपूत चन्द्रात्रेय ऋषिको सन्तान थे और चन्द्रब्रह्म उनका पूर्व पुरुष था । कन्नौज गुर्जर प्रतिहारोंकी श्रवनतिसे लाभ डठाकर चन्देलोंने विन्ध्य प्रदेश पर अपना राज्य स्थापित किया था। इस वशमें अनेक प्रतापी नरेश हुए और दशवीं शताब्दी स्त्रीके उत्तराध में जेजाकभुक्तिकी चन्देलशक्ति उत्तरीभारत की सर्वाधिक शक्तिशाली एवं सम्पन्न राज्य सत्ता थी। चंदल नरेश जहाँ विजयी वीर और कुशलशासक थे वहां वे कलाकौशल के भी भारी श्राश्रयदाता थे। खजुराहा धादिकं तत्कालीन यंत अन्य विशाल एवं कलापूर्ण जैन अजैन मंदिरोंक भग्नावशेषों को देखकर चाजभी कलाविशेषज्ञ चंदन शिल्पियोंके पूर्व कलाकौशलकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, और यह कहा जाता है कि दलका ये नमूने उस युगकी [ भारतीय का सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधि है जबकि वह हिन्दू जैन कला अपने चरमोत्कर्ष पर थो । साथ ही यद्यपि अधिकांश चंदेल नरेश शेष या वैष्णव थे तथापि खजुराहो, अहार, देवगढ़, पपौरा और अज श्रादिके तत्कालीन जैन अवशेषोंको बहुलता, उत्कृष्ट कलापूर्णता एवं विशालता यह सूचित करती है कि जैनधर्मके प्रति वे अन्यन्त सहिष्णु थे, राज्य अनेक व्यक्ति जैनधर्मानुयायी भी रहे हों तो कुछ आश्चर्य नहीं, कमसेकम दिलराज्यमें उनकी संख्या समृद्धि एवं प्रभाव तो अवश्य अन्यधिक रहे प्रतीत होते हैं। मजुराहो से प्राप्त विक्रम सम्बत १०१२ (सन् १२२० के एक शिखाले देखिये - दि. १ १३२-६)ल नरेश जंग द्वारा सम्मानित पाहिल नामक एक दानशील धर्मात्मा न मम्जन द्वारा स्थानीय जिनमंदिरके लिये अनेकों दान दिये जाने उल्लेख है। खोज करने पर ऐसे और भी अनेक शिलालेख प्राप्त हो सकते हैं। 1 इस वंश में लगभग २२ या २३ नरेशोंके होनेका अ तक पता चला है। उपरोक्त धंग इस वंशका सातवाँ राजा था धौर पृथ्वीराज चौहानका समकालीन प्रसिद्ध (चंदेल नरेश परमादिदेव ) जिसके राज्यकालमें अहारकी प्रसिद्ध विशाल काय शान्तिनाथ प्रतिमाकी संवत् १२३० (सन् १८० ई०) में प्रतिष्ठा हुई थी, यह इस वंशका सोलहवाँ राजा था। । उसके पश्चात् लोक्यवर्मदेव सिंहासन पर बैठा। वीरवदेव चंदन हम वंशका वीस राजा था। इसके शिलालेख मंत्रत् १३११ से १३४२ (सन् १२५४ से १२८५ नकके मिलते हैं। प्रस्तुत प्रतिमा लेखमें उल्लेखित श्रीमद् धीरवदेव था इसमें सन्देह नहीं । हार आदि स्थानां से प्राप्त चन्देल कालकं अनगिनित जैन प्रतिमालेखोंमं (देखिये अनेकान्त वर्ष १०. किरण १४ ) सम्भवतया यही तक के उपलब्ध लेखोंमें एक ऐसा लेख है जिसमें मूलमंघ कुन्दकुन्दान्वय के उल्लेख सहित और आचार्य विशेषणले युक्र जैन गुरुयोंका उल्लेख है । अधिकांशले तो मात्र प्रतिष्ठा करानेवाले गृहस्थ स्त्री पुरुषों के नाम, जाति, वंश आदिका परिचय हे । कुछ लेखोंमें कतिपय आर्थिक तथा कुऋषिक गुहांक नाम हैं, जिनकी प्रेरयासे उन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कराई गई थीं। इन गुरु मंघ, गद्य चादिका कुछ पता नहीं चलना, न यही मालूम होता है कि वे निर्ग्रन्थ
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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