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अनेकान्त
वर्षे १३
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द्वारा साधुत्वमें नग्नताको प्रश्रय दिया गया है। दूसरी बात सिक पराधीनताको नष्ट करना चाहिए और तब इसके बाद यह है कि यदि हम इस बातको ठीक तरहसे समझ लें कि उसे साधुत्व ग्रहण करना चाहिए । यद्यपि आजकल प्राय: साधुत्वकी भूमिका मानव जीवन में किस प्रकार तैयार होती सभी सम्प्रदायोंमें उक्र मानसिक पराधीनताके रहते हुए ही है? तो सम्भवतः साधुत्वमें नग्नताके प्रति हमारा भाकर्षण प्रायः साधुत्व ग्रहण करने की होड़ लगी हुई है, परन्तु नियम बढ़ जायगा।
यह है कि जो साधुत्व मानसिक पराधीनतासे छुटकारा पानेसाधुत्वकी भूमिका
के बाद ग्रहण किया जाता है वही सार्थक हो सकता है और जीव केवल शरीरके ही अधीन है, सो बात नहीं है, उस
उसीसे ही मुक्रि प्राप्त होनेकी आशा की जा सकती है। प्रत्युत वह मनके भी अधीन हो रहा है और इस मनकी
तात्पर्य यह है कि उक मानसिक पराधीनाताकी समाप्ति अधीनताने जीवको इस तरह दबाया है कि न तो वह
ही माधुत्व ग्रहण करनेके लिए मनुप्यको भूमिका काम अपने हिनकी बात सोच सकता है और न शारीरिक स्वास्थ्य
देती है। इसको ( मानसिक पराधीनताकी समाप्तिको)जैन की बात सोचने को ही उसमें क्षमता रह जाती है। वह तो
संस्कृति में सम्यग्दर्शन नामसे पुकारा गया है और क्षमा, केवल अभिलाषायोंकी पूर्तिके लिये अपने हित और शारी- मानव श्राजव, सत्य शोच, आर सयम य छह
मार्दव प्रार्जव, सत्य शौच, और संयम ये छह धर्म उस रिक स्वास्थ्यके प्रतिकूल ही पाचरण किया करता है। सम्यग्दशनक अंग मान गए ह
यदि हम अपनी स्थितिका थोड़ासा भी अध्ययन करने मानव-जीवनमें सम्यग्दशेनका उद्भव का प्रयत्न करें तो मालूम होगा कि यद्यपि भोजन प्रादि प्रत्येक जोवके जीवनकी सुरक्षा परस्परोपग्रहो जीवानाम्। पदार्थों की मनके लिये कुछ भी उपयोगिता नहीं है, वे केवल सूत्र में प्रतिपादित दूसरे जीवोंके महयोग पर निर्भर है। शरीरके लिये ही उपयोगी सिद्ध होते हैं। फिर भी मनके परन्तु मानव जीवनमें तो इसकी वास्तविकता स्पष्ट रूपसे वशीभूत होकर हम ऐसा भोजन करनेसे नहीं चूकते हैं जो दिखाई देती है। इसी लिए ही मनुष्यको सामाजिक प्राणी इमारो शारीरिक प्रकृतिके बिल्कुल प्रतिकूल पड़ता है और स्वीकार किया गया है, जिसका अर्थ यह होता है कि मामाजब इसके परिणाम स्वरूप हमें कप्ट होने लगता है तो न्यता मनुष्य कौटुम्बिक सहवास आदि मानव समाजक उसका समस्त दोष हम भगवान या भाग्यक ऊपर थोपनेकी विविध संगठनों के दायरेमें रहकर हो अपना जीवन सुखपूर्वक चेष्टा करते हैं। इसी प्रकार वस्त्र या दूसरी उपभोगकी बिता सकता है । इमलिए कुटुम्ब, ग्राम, प्रान्त, देश और वस्तुओंके विषय में हम जितनी मानसिक अनुकूलताको बात विश्वक रूपमें मानव संगठनके छोटे-बड़े जितने रुप हो सकते मोचते हैं उतनी शारीरिक स्वास्थ्यको अनुकूलताकी बात हैं उन सबको संगठित रखनेका प्रयत्न प्रत्येक मनुष्यको मतत नहीं सोचते । यहां तक कि एक तरफ तो शारीरिक स्वास्थ्य करते रहना चाहिए। इसके लिये प्रत्येक मनुष्यको अपने बिगड़ता चला जाता है और दूसरी तरफ मनकी प्रेरणासे जीवनमें "प्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" का हम उन्हीं साधनोंको जुटाते चले जाते हैं जो साधन हमारे सिद्धान्त अपनानेको अनिवार्य आवश्यकता है, जिसका अर्थ शारीरिक स्वास्थ्यको बिगाड़ने वाले होते हैं। इतना ही यह है कि "जैसा व्यवहार दूसरोंसे हम अपने प्रति नहीं नहीं, उन माधनोंक जुटाने में विविध प्रकारकी परेशानीका चाहते हैं वैसा व्यवहार हम दूसरोंके माथ भी न करें और अनुभव करते हुए भी हम परेशान नहीं होते बल्कि उन जैसा व्यवहार दूसरोंसे हम अपने प्रति चाहते है वैसा व्यवसाधनोंके जुट जाने पर हम आनन्दका ही अनुभव करते हैं। हार हम दूसरोंके साथ भी करें।'
मनकी आधीनतामें हम केवल अपना या शरीरका अभी तो प्रत्येक मनुष्यको यह हालत है कि वह प्रायः ही अहित नहीं करते हैं, बल्कि इस मनकी अधीनताके दसरोंको निरपेक्ष सहयोग देने के लिए तो तैयार ही नहीं कारण हमारा इनना पतन हो रहा है कि विना प्रयोजन हम होता है। परन्तु अपनी प्रयोजन सिद्धि के लिए प्रत्येक मनुष्य दूसरोंका भी अहित करनेसे नहीं चूकते हैं और इसमें भी न केवल दसरोंसे सहयोग लेनेके लिए सदा तैयार रहता है। प्रानन्दका रस लेते हैं।
बल्कि दूसरोंको कष्ट पहुंचाने, उनके साथ विषमताका व्यवदि. जैन संस्कृतिका मुक्ति प्राप्तिके विषयमें यह उपदेश हार करने और उन्हें धोखेमें डालनेसे भी वह नहीं चूकता है कि मनुष्यको इसके लिए सबसे पहले अपनी उक्त मान- है। इतना ही नहीं, प्रत्येक मनुष्यका यह स्वभाव बना हुआ