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किरण १. 1
साधुत्वमें नग्नताका स्थान
है कि अपना कोई प्रयोजन न रहते हुए भी दूसरोंके प्रति इनके उपभोगमें कंजूसी नहीं करना चाहिए और इनका उपउक्र प्रकारका अनुचित व्यवहार करनेमें उसे प्रानन्द प्राता भोग प्रावश्यकतासे अधिक भी नहीं करना चाहिए। ।
आवश्यकता रहते हुए भोजनादि सामग्रोके उपभोगमें जैन संस्कृतिका उपदेश यह है कि 'अपना प्रयोजन कंजूसी नहीं करना, इसे ही शौचधर्म और अनर्गल नरीक्रमे रहने न रहते कभी किसीके साथ उक्त प्रकारका अनुचित व्यव- उसका उपभोग नहीं करना इसे हा मंयमधर्म समझना हार मत करो। इतना ही नहीं, दूसरोंको यथा-अवसर निर- चाहिए। पेक्ष सहायता पहुँचानको सदा तैयार रहो' एमा करनेसे एक इस प्रकार मानव जीवनमें उक्र उमा, मार्दव, प्रार्जब तो मानव संगठन स्थायी होगा, दूसरे प्रत्येक मनुष्यको उस और सत्यधर्मोके माथ शौच और संयम-धर्मोंका भी समामानसिक पराधीनतासे छुटकारा मिल जायेगा, जिसके रहते वेश हो जाने पर मम्पूर्ण मानपिक पराधीनतासे मनुष्यको हुए वह अपनेको सभ्य नागरिक तो दूर मनुष्य कहलाने तक छुटकारा मिल जाता है और तब उस मनुष्यको विवेकी या का अधिकारी नहीं हो सकता है।
सम्यग्दृष्टि नाममे पुकारा जाने लगता है क्योंकि तब उम अपना प्रयोजन रहते न रहत दूसरोंको कष्ट नहीं पहुं मनुष्य के जीवन में न केवल "प्रात्मन. प्रतिकृलानि परेषां न चाना, इसे ही क्षमाधर्म, कभी भी दूसरोंके माथ विषमताका ममाचरत' का सिद्धान्त समाजाता है, बल्कि वह मनुष्य व्यवहार नहीं करना व इसे ही मादव धर्मः कभीभा दूसरोंको इस तथ्यको भी हृदयंगम कर लेता है कि भोजनादिकका धोखे में नहीं डालना, इसेही आजव धर्म और यथा अवसर उपयोग क्यों करना चाहिये और किस ढंगसे करना चाहिये? दूसरोंको निरपेक्ष सहायता पहुंचाना, इस ही सत्यधर्म सम- सम्यग्दृष्टि मनुष्यकी साधुत्वकी ओर प्रगति मना चाहिए । इन चारों धर्मोको जीवनमें उतार लेने पर
इस प्रकार मानसिक पराधीनताके समाप्त हो जाने पर मनुष्यको मनुष्य, नागरिक या सभ्य कहना उपयुक्र हो
मनुष्यक अन्तःकरणमें जो विवेक या सम्यग्दर्शनका जागरण सकता है।
होता है उसकी वजहमे, वह पहले जो भोजनादिकका उपयह भी दखत है कि बहर मनुष्य उक्र प्रकारस मभ्य ग
या n n पागे उनका हुए भी लाभक हनने वशीभूत रहा करत है कि उन्हें वह उपभोग वह शरीरकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते सम्पत्तिक संग्रह में जितना अानन्द प्राता है उतना अानन्द
हुए ही करने लगता है। उपक भोगने में नहीं पाता । इस लिए अपनी शारीरिक श्राव
इस तरह माधुवको भूमिका तैयार हो जाने पर वह श्यकताओंकी पूतिमें वे बड़ा कंजूमीसं काम लिया करते है
मनुष्य अपना भाश कनव्य-मार्ग इस प्रकार निश्चित करता सका परिणाम यह हाता है कि उनका स्वास्थ्य बगह है कि जिमम वह शारीरिक पराधीनतास भी छुटकारा पा जाता है। इसी तरह दूसरे बहुतसे मनुष्योंकी प्रकृति इतनी । लोलुप रहा करनी है कि वे मंपत्तका उपभोग अावश्यकता- वह मांचना है कि मेरा जीवन तो शरीराश्रित है ही, से अधिक करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होने । इसलिए ऐसे - ही, लेकिन शरीरका स्थिरताक लिये भी मुझे भोजन, वस्त्र, मनुष्य भी अपना स्वास्थ्य बिगाड कर बेठ जाते हैं। आवास और कौटुम्बिक महवाम्पका महाग लेना पड़ता है.इस
जैन संस्कृति बतलाती है कि भोजन आदि मामग्री नम्ह में मानव संगठ के विशाल चकरम फंसा हुनाई। शारीरिक स्गम्थ्यकी रक्षाक लिए बड़ी उपयोगी है इसलिए इस डारीको समाप्त करनेका एकही युनि. मंगत उपाय इसमें कंजमीसे काम नहीं लेना चाहिए। लेकिन अच्छी बातों- जैन संस्कृतिमें प्रतिपादित किया गया है कि शरीरको का अतिक्रमण भी बहुत बुरा होना है, अत: भोजनादि अधिकसे अधिक प्रात्म निर्भर बनाया जावे । इसके लिए मामग्रीक उपभोगमें लोलुपता भी नहीं दिखलाना चाहिये, (जैन संस्कृति) हमें दो प्रकारक निर्देश देती है-एक तो क्योंकि शारीरिक स्वास्थ्यरताके लिए भोजनादि जितने भात्मचिंतन द्वारा अपनी (मात्माको) उस स्वावलम्बन जरूरी है उतना ही जरूरी उनका शारीरिक प्रकृतिके अनु- शक्रिको जाग्रत करनेकी, जिसे अन्तरायकमने दबोचकर कूल होना और निश्चित सीमातक भोगना भी है। इसलिए हमारे जीवनको भोजनादिकके अधीन बना रक्खा है और शरीरके लिए जहाँ तक इनकी आवश्यकता हो, वहां तक दूसरा ब्रतादिक द्वारा शरीरको सबल बनाते हुए भोजना.