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२४४] अनकान्त
[वर्ण १३ दिककी पावश्यकताओंको कम करनेका । इस प्रयत्नस जैसे- जीवका उस शरीरस सम्बन्धविच्छेद नहीं हो जाता है। जैसे शरीरके लिये भोजनादिककी आवश्यकतायें कम होती शरीरका पूर्ण रूपसे आत्म निर्भर हो जानेसे मनुष्यका भोजननागी (याने शरीर जितना-जितना प्रात्म-निर्भर होना से भी सम्बन्ध विच्छेद हो जानेको प्राचिन्य धर्मकी नायगा) वैसे-वैसे ही हम अपने भोजनमें सुधार और वस्त्र, पूर्णता कहते है और इस तरह प्राचिन्यधर्मकी पूर्णता हो भाषास तथा कौटुम्बिक महवाममें कमी करते जागे जिससे ___ जाने पर उसे माधु वर्गका चरमभेद स्नातक भामसे पुकारने हमें मानव संगठनके चक्करसे निकलकर (याने समष्टि गत लगते हैं । जैन सस्कृतिमें यही जोपन्मुक्र परमात्मा कहलाता जीवनको समासकर) वैयक्रिक जीवन बितानेकी क्षमता प्राप्त है। यह जीवन्मुक्त परमात्मा प्रायुकी समाप्ति हो जाने पर हो जायगी।
शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होजानेके कारण जो अपने प्रात्माकी स्वावलंबन शक्रिको जाग्रत करने और शरीर आपमें स्थिर हो जाता है यही ब्रह्मचर्य धर्म है और यही सम्बन्धी भोजनादिककी आवश्यकताओंको कम करनके मुक्ति है । इस ब्रह्मचर्य धर्म अथवा मुनिकी प्राप्तिमें ही मनुष्य प्रयत्नोंको जैन संस्कृतिमें क्रमशः अन्तरंग और बाह्य दो का माधुमार्गक अवलम्बनका प्रयास सफल हो जाता है। प्रकारका तपधर्म तथा भोजनादिकमें सुधार और कमी करने
यहां पर हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते है कि दि. को त्यागधर्म कहा गया है।
जैन संस्कृतिमें माधुनोंको जन-माधारण वर्गसे अलग परस्पर साधु मार्गमें प्रवेश
समूह बनाकर अथवा एकाकी वाय कग्नका निर्देश किया जीवनमें तप और त्याग इन दोनों धर्मोकी प्रगति करते गया है। अन. जब उन्हें भोजन ग्रहण करनेकी आवश्यकता हुए विवेक या सम्यग्दर्शन सम्पन मनुष्य जब जन साधारण- महसूम हो, तभी और सिर्फ भोजनके लिये ही जन के वर्गसे बाहर रह कर जीवन विताने में पूर्ण सक्षमना प्राप्त माधारणके सम्पर्कमें आना चाहिये। वैसे जनमाधारण चाहें, कर लेता है और शारीरिक स्वास्थ्यकी रक्षाके लिये उसकी तो उनके पास पहुंच कर उनसे उपदेश ग्रहण कर सकते हैं। वस्त्र ग्रहणकी आवश्यकता समाप्त हो जाती है तब वह . नग्न दिगम्बर होकर दिगम्बर जैन संस्कृतिके अनुसार साधुमार्गमें प्रवेश करता है । नग्न दिगम्बर बन कर जीवन
इस लेखमें साधुत्वक विषयमें लिखा गया है वह यद्यपि बितानेको दिगम्बर जैन संस्कृतिमें आकिंचन्य धर्म कहा गया
दि. जैन संस्कृतिक दृष्टिकोणके आधार पर ही लिखा गया है। पाकिच्चन्य शब्दका अर्थ है, पाममें कुछ नहीं रह जाना,
है परन्तु यह समझना भूल होगी कि साधुत्वक विषयमें इससे अर्थात् अब तक मनुष्यने जो शरीर रक्षाके लिये वस्त्र,
भिन्न दृष्टिकोण भी अपनाया जा सकता है कारण कि साधुत्त्व आवास, कुटुम्ब और जन साधारणसे सम्बन्ध जोड रक्या
ग्रहण करते समय मनुष्यक सामने निर्विवाद रूपसे प्रात्माकी था, वह सब उसने समाप्त कर दिया है केवल शरीरकी
स्वावलम्बन शक्निको उत्तरोत्तर बढ़ाना और शरीरमें अधिक स्थिरताके लिये भोजनमे ही उसका मन्बन्ध रह गया है
से अधिक आत्मनिर्भरता लाना एक मात्र लक्ष्य रहना और भोजन ग्रहण करनेकी प्रक्रियामें भी उसने इस किम्मसे
उचित है। अत: किसी भी सम्प्रदायका माधु क्यों न हो. सुधार कर लिया है कि उसे पराश्रयताका लेशमात्रभी अनु
उसे अपने जीवन में दिगम्बरजैनसंस्कृति द्वारा समर्थित भव नहीं होता है । इतने पर भी कदाचित् पराश्रयताका
रष्टिकोण ही अपनाना होगा अन्यथा साधुत्त्व ग्रहण करनेका अनुभब होनेकी सम्भावना हो जाय तो पराश्रयता स्वीकार
उसका उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा। करनेकी अपेक्षा सन्यस्त होकर (ममाधिमरण धारण करके) वर्तमानमें सभी सम्प्रदायोंके साधु-जिनमें दि. जैन जीवन समाप्त करनेके लिये सदा तैयार रहता है। भोजनसे सम्प्रदायके साधु भी मम्मिलित हैं, साधुत्वके स्वरूप, उद्देश्य उसका सम्बन्ध भी नब तक रहता है जब तक कि शरीर और उत्पत्तिक्रमकी नासमझीके कारण बिल्कुल पथभृष्ठ रक्षाके लिये उसकी आवश्यकता बनी रहती है, इसलिये हो रहे हैं। इसलिए कंवल सम्प्रदाय विशेषके साधुनोंकी जब शरीर पूर्णरूपसे आत्म निर्भर हो जाता है तब उसका पालोचना करना यद्यपि अनुचित ही माना जायगा फिर भी भोजनसे भी सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और फिर शरीर जिस सम्प्रदाय के साधुओंकी आलोचना की जाती है उस की यह आत्मनिर्भरता तब तक बनी रहती है जब तक कि सम्प्रदायके लोगोंको इससे रुष्ट भी नहीं होना चाहिये कारण