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किरण १.] साधुत्वमें नग्नताका स्थान
२४५ कि आखिर वे साधु किसी न किसी रूपमें पथभृष्ट तो रहते साधुत्व ग्रहण करनेकी योग्यता रखने वाले, तीसरे, चौथे ही हैं अतः रुष्ट होनेकी अपेक्षा दोपोंको निकालनेकाही और पांचवें गुणस्थान वर्ती मनुष्यों में जब साधुत्वका उदय उन्हें प्रयत्न करना चाहिए । अच्छा होगा, यदि भाई परमा- होता है तो उस हाल नमें उनके पहले सातवां गुणस्थान ही नन्द कवरजी कापडिया साधुत्वमेंसे नग्नताकी प्रतिष्ठाको होता है छठा गुणस्थान हो इसके बादमें ही हुमा करता है समाप्त करनेका प्रयत्न न करके केवल दि. जैन माधुओंके इसका आशय यही है कि जब मनुष्यकी मानसिक परिणति अवगुणोंकी इस तरह आलोचना करते, जिससे उनका मार्ग- में साधुन्ध समाविष्ट हो जाता है तभी बाह्यरूपमें भी साधुत्वदर्शन होता।
को अपनाते हुए वह नग्नताकी ओर उन्मुख होता है। प्रश्न-जिस प्रकार पीछी, कमण्डलु और पुस्तक पास तापर्य यह है कि सप्तम गुणस्थानका आधार साधुत्वमें रखने पर भी दि. जैन माधु अकिंचन (निर्गन्थ) बना का अन्तमुख प्रवृत्ति है और षष्ठ गुणस्थानका प्राधार साधु, रहता है उसी प्रकार बम्ध रखने पर भी उसके अकिंचन बने स्वकी बहिर्मुख प्रवृत्ति है। माधुत्वकी ओर अभिमुख होने रहने में श्रापनि क्यों होना चाहिये ?
वाले मनुष्यकी साधुत्वकी अन्तमुख प्रवृत्ति पहले हो जाया उत्तर-दि. जैन माधु कमण्डलु तो जीवनका अनि- कानी है, इसके बाद हो जब वह मनुष्य बहिःप्रवृत्तिको ओर वार्य कार्य मलशुद्धि के लिए रम्बना है, पोछी स्थान शोधनके झुकना है तब वस्त्रोंका त्याग करता है अत: यह बात स्पष्ट काममें पानी है और पुस्तक ज्ञानवृद्धिका कारण है अतः हो जाती है कि साधुन्चका कार्य नग्नता है नग्नताका कार्य साधुअकिंचन साधुको इनके पाममें रम्बनेकी छूट दि. जैन संस्कृति त्व नहीं , यद्यपि नपता अंतरंग माधुस्वके विना भी देखने में में दी गयी है परन्तु इन वस्तुओं को पासमें रखते हुए वह पाती है परन्तु जहाँ अन्तरंग साधुत्वको प्रेरणासे बाह्य वेशमें इनके सम्बन्धमें परिग्रही ही है, अपरिग्रही नहीं। इसी नग्ननाको अपनाया जाता है वही सच्चा साधुत्व है। प्रकार जो माधु शरीर रक्षाके लिए अथवा सभ्य कहलानेके प्रश्न-जब ऊपरके कथनसे यह स्पष्ट होता है कि लिए वस्त्र धारण करता है तो उसे कमसे कम उस वस्त्रका मनुप्यकं सातवां गुणस्थान प्रारम्भमें सवस्त्र हालतमें ही परिग्रही मानना अनिवार्य होगा।
हो जाया करता है और इसके बाद छठे गुणस्थानमें आने पर तात्पर्य यह है कि जो साधु वस्त्र रखते हुए भी अपने- वह वस्त्रको अलग करता है । तो इससे यह निष्कर्ष भी को माधुमार्गी मानते है या लोक उन्हें माधुमार्गी कहना है निकलता है कि मानवे गुणस्थानकी तरह अाठवां प्रादि तो यह विषय दि. जैन संस्कृतिक दृष्टिकोणके अनुसार गुणम्थानोंका सम्बन्ध भी मनुष्यको अन्तरंग प्रवृत्तिस होनेके विवादका नहीं है क्योंकि दि.जैन संस्कृतिम माधुत्वके विषय कारण मवम्ब मुक्रिक समर्थन में कोई बाधा नही रह जाती में जो नग्नता पर जोर दिया गया है उसका अभिप्राय तो है और इस तरह दि. जैन संस्कृनिका मीमुनि निषेध भी सिर्फ इतना ही है कि मवस्त्र साधुमे नन माधुकी अपेक्षा असंगत हो जाना है।
श्रात्माकी म्वावलम्बन शकिके विकास और शरीरकी प्रान्म- उत्तर-यद्यपि सभी गुणस्थानीका सम्बन्ध जोवकी निर्भरनाकी उतनी कमी रहना म्वाभाविक है जिस कमीक अन्तरंग प्रवृत्तिसे ही है, परन्तु कुछ गुणस्था। ऐसे हैं जो कारण उसे वस्त्र ग्रहण करना पट रहा है । इस प्रकार नम्त्र अन्तरंग प्रवृत्तिा माथ बाह्यवेशक आधार पर व्यवहारमें भ्यागकी असामर्थ्य रहने हुए वस्त्रका धारण करना निंदनीय अाने योग्य है । ऐम गुपन्धान पहला, तीसरा, चौथा, नहीं माना जा सकता है प्रन्युन वस्त्र--पागकी प्रमामर्थ्य रहने पांचवों; छठा और तरहवां ये सब हैं शेष गुणम्थान दूसरा, हुए भी नग्नताका धारण करना निन्दनीय ही माना जायेगा मानवां, अाठवां, नववा, दशवां, ग्यारहवाँ, बारहवां और क्योंकि इस तरह प्रयन्नस माधुरमें उत्कर्ष होनेको अपेक्षा चौदहवां ये सब केवल अन्तरंग प्रवृत्ति पर ही आधारित अपकर्ष ही हो सकता है यही मबब है कि दिगम्बर जैन हैं। इसलिए जो मनुप्य मवस्त्र होते हुए भी केवल अपनी संस्कृतिमें नग्रताको मिसी एक हद तक माधुत्वका परिणाम अन्तः प्रवृत्तिकी अोर जिम समय उन्मुम्ब हो जाया करते हैं ही माना गया है माधुन्वमें नग्नताको कारण नहीं माना गया उन मनुष्योंक उस समयमे वस्त्रका विकल्प ममाप्त हो जान
के कारण मातवेंसे बारहव नकक गुणम्यान मान लेने में कोई इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये कि आपत्ति नहीं है। दि० जैन संस्कृनिमें भी चेलोपसृष्ट साधु