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. अनेकान्त
[ वर्षे १३
भोंका कथन तो भाता ही है । परन्तु दि. जैन संस्कृतिकी म्बित है, दूसरे वहाँ पर प्रात्माकी स्वालम्बन शक्ति और मान्यतानुसार मनुष्यके पठा गुणस्थान इलिये सम्भव नहीं शरीरकी प्रात्मनिर्भरताकी पूर्णता हो जाती है, इसलिए वहाँ है कि वह गुणस्थान ऊपर कहे अनुसार साधुत्वकी अन्तरंग वस्त्रस्वीकृतिको आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। दि. प्रवृत्तिके साथ उसके बाझ वेश पर आधारित है, अतः जब जैन संस्कृतिमें द्रष्यस्त्रीको मुक्ति न माननेका यह भी एक तक वस्त्रका त्याग बाह्यरूपमें नहीं हो जाता है तब तक दि. कारण है। जंन संस्कृतिक अनुसार वह साधु नहीं कहा जा सकता है। जिन लोगोंका यह ख्याल है कि साधुके भोजन ग्रहण इसी आधार पर मवस्त्र होनेके कारण इन्य स्त्रीके छठे गुण और वस्त्र ग्रहण दोनों में कोई अन्तर नहीं है उनसे हमारा स्थानकी सम्भावना तो समाप्त हो जाती है । परन्तु पुरुषकी इतना कहना ही पर्याप्त है कि जीवनके लिए या शरीर रक्षा तरह उसके भी सातवां आदि गुणस्थान हो सकते हैं या के लिए जितना अनिवार्य भोजन है उतना अनिवार्य वस्त्र मुक्रि हो सकती है इसका निर्णय इस आधार पर ही किया नहीं है, जितना अनिवार्य वस्त्र है उतना अनिवार्य आवाम जा सकता है कि उसके संहनन कौन सा पाया जाता है। नहीं है और जितना अनिवार्य प्रावास है उतना अनिवाय मुक्रिके विषय में जैन संस्कृतिकी यही मान्यता है कि वह पब- कौटुम्बक महवाल नहीं है। वृषभनारचपहनन वाले मनुष्यको ही प्राप्त होती है और अन्तमें म्थूल रूपसे साधुका लक्षगा यही हो सकता है यह मंहनन द्रव्यस्त्रीक सम्भव नहीं है। अतः उसके मुनि- कि जो मनुष्य मन पर पूर्ण विजय पा लेनेके अन्तर यथाशक्ति का निषेध नि. जैन संस्कृतिमें किया गया है। मनुष्यके तर- शारीरिक आवश्यक्ताओंको कम करते हुए भोजन आदिको हवें गुणस्थानमें बस्त्रकी सत्ताको स्वीकार करना तो सर्वथा पराधीनताको घटाता हुआ चला जाता है वही साधु कहलाता प्रयुक्त है क्योंकि एक तो तेरहवां गुणस्थान षष्ठगुणस्थानक है। समान अन्तरंग प्रवृत्तिके साथ-साथ बाह्य प्रवृत्ति पर अवल
(बीना-ता. २०१३।१५)
भारतीय इतिहासका एक विस्मृत पृष्ठ
(जैन सम्राट् राणा सुहेलदेव )
[श्रीलल्लन प्रमाद व्याम] सहस्रो वर्षकी दासनाने हमारे राष्ट्रको निर्जीव-मा बना देना चाहिए। इसलिए यद्यपि अाज हमने गजनैतिक दिया है। इस दीर्घकालीन परतन्त्रता रूपी झंझाके थपेटोन रूपसे स्वतन्त्रता प्राप्त करली परन्तु मानसिक स्वतन्त्रता -
शकी संस्कृति, धर्म, साहित्य और इतिहासको अस्त व्यस्त प्राप्त करने में अब भी कुछ समय है। कर दिया है। विदेशी शासक, जिसमें विशेषतः अंग्रेजोंने तो, आज हम स्वतन्त्र हैं। परन्तु अभी हमें अपना इस दशमें राजनैतिक पारतन्त्रक अपेक्षा मानपिक पारनन्त्र (स्व) तन्त्र निर्माण करना शेष है। जिसके बिना हम पर अधिक जोर दिया। कारण कि मानसिक पारनन्त्रसे स्वतन्त्र' नहीं कहे जा सकते । अतः हमें अपने वास्तविक सम्पूर्ण राष्ट्रमें प्रात्म-विस्मृति हो जाती है और फिर वह इतिहासका निर्माण करना बहुत मावश्यक है जो हमारे गष्ट्र परतन्त्रताकी बेडियोसे और भी जोरोंसे जकडा जाता राष्ट्र जीवनमें मदैव नवस्फूर्ति और प्रेरणाका संचार कर है इसी नीतिको ध्यानमें रखते हुए, विदशियोंने हमारे सके । छत्रसाल जयन्तीके अवसर पर भाषण करते हुए अतीतके गौरवमय इतिहामको विनष्ट करने तथा शेपको राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादने कहा कि मुझे अत्यन्त खेद है असत्वमें परिवर्तित कर देनेके सफल प्रयास किए। क्योंकि कि भारतीय इतिहासमें छत्रसाल ऐसे महापुरुषका उल्लेख थे भली भांति जानते थे कि यदि किसी जातिको नष्ट तक नहीं है तथा उन्होंने प्राश्वासन दिया कि भविष्य में करना है तो सर्वप्रथम उसके ऐतिहासिक महत्वको नष्ट कर देशका वास्तविक इतिहास लिखा जाने वाला है।