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किरण १०] भारतीय इतिहासका एक विस्मृत पृष्ठ
[२४७ उसी प्रकार दुर्भाग्यका विषय है कि हमारे इतिहासकार ममऊदीमें भी की गई। परन्तु कुछ हिन्दू और जैन ग्रंथोंका श्रावस्ती नरेश, वीर राणा सुहेलदेवको भी भूल गए अध्ययन करनेसे यह बात सर्वथा असत्य जान पड़ती है। जिन्होंने अपनी शनि और पराक्रमसे भारत देशको विदेशी श्रीकंठचरित्रमें सम्राट् सुहेलदेव राजवंशी क्षत्रिय कहे गये अाक्रमणकारियोंसे रहित कर दिया था और फिर सैकड़ों है। गोडा गजेटियरमें इनको राजपूत सम्राट् बतलाया है। वर्षों तक किमी भी विदेशीने भारतवर्षमें आनेका नाम नक परगना बुक बहराइचमें भी इनका क्षत्रिय वंश उल्लिखित है। न लिया । क्या इस राष्ट्र-पुरुषको हमारा देश कभी भुला अतएव सम्राट् सुहेलदेवके सम्बन्धमें उपलब्ध, अब सकता है? कदापि नहीं । आज मस्यको छिपानेका चाहे तकके समस्त ग्रन्योंका मन्यन करनेसे हम इस निष्कर्ष पर कोई दुस्साहम करे परन्तु कल तो वह प्रकट होकर ही रहेगा पहुंचते हैं कि वीर सुहेलदेव, गजनवीके समकालीन, कोशल
और भविष्यमें लिखे जाने वाले देशके सच्चे वीर मुहेलदेवका के मम्राट थे, जिनकी राजधानी श्रावस्तीपुरी थी । ये खत्री नाम स्वर्ण अवरों में अंकित होगा। प्राज-भी मानो श्रावस्ती- थे तथा जैनधर्मको मानने थे। उन्होंने यवनाधिपति मैयद के खंडहर अपने गत वैभवकी कहानी सुना रहे हैं तथा मलार ममऊद गाजीको युद्ध में मार डाला और एक बार उसके कण-कणसे 'राणा सुहेलदेवकी जय' की स्वर लहरी इस भारत भूमिको परकीयोंसे रहित कर दिया। प्रस्फुटित हो रही है।
युद्धसे पूर्व देशकी दशा और युद्ध राणा सुहेलदेवसे सम्बन्धित ऐतिहासिक खोज
वीर सम्राट् सुहेलदेवके जीवनकालमें युद्ध ही एक यह तो सर्वविदित है कि हमारा भारतीय इतिहास ऐतिहासिक महत्वकी घटना थी। इस युद्धकी विजयश्रीने वीर सुहेलदेवक सम्बन्धम पूणतः मान है। इस सम्बन्धम ही उन्हें सदैवके लिए अमर बना दिया। इसलिए युद्धके अभी तक जो कुछ भी ऐतिहामिक सामग्री उपलब्ब हो बारेमें थोडा बहत ज्ञान होना अति आवश्यक है। सकी है उसी पर हमको सन्तोष करना पड़ता है।
युद्धके पूर्व देश धन धान्यसे सम्पन्न किन्तु छोटे-छोटे प्रथम, आर्कियालाजिकल सर्वे रिपोर्ट में सम्राट् सुहेलदेव- राज्यों में विभाजित था। देशमें एक सुसंगठित शकिका को प्रतापी सम्राट मोरध्वज, हंमध्वज और सुधनध्वजका अभाव था। लगभग ममस्त राजागणोंमें संकुचित मनोवृत्ति वंशज तथा श्रावस्तीका अन्तिम जैन सम्राट् माना गया है। होनेके कारण वे आपसमें ही युद्ध किया करते थे। हमारे युद्ध में सम्राट् सुहेलदेवके हाथों सलार मसऊद गाजीके वधका देशके इतिहासकी असफलता और पराजयसे परिपूर्ण महस्रों भी उल्लेख है। द्वितीय, गजेटियर जिला बहराइचसे भी वर्षकी लम्बी करुण कहानीका सारांश यही है कि शेर शेर सम्राट् सुहेलदेव जैनी सम्राट् ज्ञात होते हैं तथा इनकी आपस में ही लड़कर समाप्त हो गये तथा गीदड़ोंने राज्य राजधानी श्रावस्तीपुरी थी । तृतीय, श्रीकंठचरित्रमें भी किया । उसी प्रकारसे हमारी विघटित तथा बीया शक्रिसे सम्राट सुहेलदेवका उल्लेख है और उनका काश्मीरकी एक लाभ उठाकर महमूद गजनवीने एक दो नहीं सत्रह बार इस विद्वानोंको सभामें जाना वर्णित है। इसके अतिरिक्त कुछ देश पर आक्रमण किया और अपार धन यहांसे गजनी ले इतिहासकारोंका मत है कि सम्राट् सुहेलदेव कोई स्वतन्त्र गया। कनौज उस समय देशका केन्द्र था,यथा यहांके राजाने राजा न थे बल्कि अपने समकालीन कनौज सम्राट्के प्राधीन पहले ही राष्ट्रीय आत्म-सम्मानको तिलांजलि देते हुये थे। परन्तु यह तो सर्वमान्य सत्य है कि कौजके सम्राट
अन्य राजाओंकी सम्मतिके बिना ही यवनोंसे सन्धि कर ली इसके पूर्वसे ही मुसलमानोंके मित्र हो चुके थे और विशेष थी। इसके अतिरिक्र एक दूसरा संकट देश पर पाने वाला रूपसे उनका सैयद सलार मसऊदके बीच भीषण युद्धका था। महमूद गजनवीका भानजा सेयद सलार मसूद इस्लामप्रश्न ही नहीं उठता।
धर्म प्रचारकी आदमें भारतवर्ष पर भीषण आक्रमणके हेतु कतिपय विदेशियोंने ईर्ष्या और द्वेष वश सम्राट् एक बहुत बड़ी सेनाका निर्माण कर रहा था। सत्रह वारके सुहेलदेवको 'भर' अथवा 'डोम' जातिका कह गला है। आक्रमणोंसे अनुभव प्राप्त महमूद गजनवीकी सेनाके भूतपूर्व उदाहरणार्थ स्मिथ और नेवायलने इनको 'भर' अथवा सेनापति और सिपाही ही अधिकतर, सैयद सलार मसूदकी 'म' जातिका सम्राट् कहा है और यही भूल मीरात सेनामें भर्ती किये गये थे। इसके उपरान्त वह अपनी सेनाके