________________
सकाम धर्मसाधन
लौकिक-फलकी इच्छाओं को लेकर जो धर्ममाधन किया जाय । अन्यथा. क्रिया-बाह्य धर्माचरणके समान होने जाता है उस मकाम धर्मपाधन' कहते हैं और जो धर्म पर भी एकको बन्ध फल दूसरेको मोक्षफल अथवा एकको चैमी इच्छाओंको माथमें न लेकर, मात्र आम्मीय कर्तव्य पुण्यफल और इमरेको पापफल क्यों मिलता है। देखिये, समझकर किया जाता है उसका नाम 'निष्काम धर्ममाधन' कर्मफलकी इस विचित्रताके विषयमें श्रीशुभचन्द्राचार्य शानाहै। निष्काम धर्मसाधन ही वास्तवमें धर्ममाधन है और वही वमें क्या लिखते हैंवास्तविक-फनको फलता है । सकाम धर्मसाधन धर्मको विकृत यत्र बालश्चात्यम्मिन्पथि तत्रैव पण्डितः । करता है. मदोष बनाना है और उसमे यथेष्ट धर्म-फलकी बालः स्वमपि बध्नाति मुच्यते तत्त्वविध्र वम् ॥७२॥ प्राप्ति नहीं हो सकती । प्रत्युत इसके, अधर्मको और कभी अर्थात् -जिस मार्ग पर अज्ञानी चलता है उसी पर कभी घोर पाप-फल की भी प्राप्ति होती है। जो लोग धर्मके
ज्ञानी चलता है। दोनोंका धर्माचरण समान होने पर भी वास्तविक स्वरूप और उसकी शक्रिस परिचित नहीं, जिनके अज्ञानी अपने अविवेकके कारण कर्म बाँधता है और ज्ञानी अन्दर धर्य नहीं, श्रद्धा नहीं, जो निर्बल हैं - कमजोर हैं, अपने विवेक द्वारा कर्म-बन्धनसे छूट जाता है। ज्ञानार्णवके उतावले हैं और जिन्हें धर्मके फल पर पूरा विश्वास नहीं, निम्न श्लोकमें भी इसी बातको पुष्ट किया गया हैसे लोग ही फल-प्राप्तिमें अपनी इच्छाकी टाँगें अन्हा कर
वेष्टयत्यात्मनात्मानमज्ञानी कर्मबन्धनैः । धर्म को अपना कार्य करने नहीं देने- उस पंगु और
विज्ञानी मोचयत्येव प्रबुद्धः ममयान्तरे ॥७१७|| बेकार बना देते हैं, और फिर यह कहते हम नहीं लजाने कि
इससे विवेक पूर्वक आचरणका कितना बड़ा माहात्म्य धर्म-साधनसं कुछ भी फलकी प्राप्ति नहीं हुई। ऐसे लोगोंके
है उसे बतलानेकी अधिक जरूरत नहीं रहती। समाधानार्थ-उन्हें उनकी भूलका परिज्ञान करानेके लिए ही यह लेख लिखा जाता है, और इसमें प्राचार्य-वाक्योंके द्वारा
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, अपने प्रवचनसारके चारित्राधिकारमें,
इसी विवेकका-सम्यग्ज्ञानका-माहात्म्य वर्णन करते ही विषयको म्पष्ट किया जाता है। श्रीगुणभद्राचार्य अपने 'अात्मानुशासन' ग्रन्थमें लिग्वतं
हुए बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है
जअण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। मंकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणे पि । तणाणा तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ३॥ अमंकल्प्यममंचिन्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥२२॥ अर्थात-अज्ञानी-अविवेको मनुष्य जिस अथवा जितमे
अर्थात-फलप्रानमें कल्पवृक्ष मकल्पकी ओर चिन्ता. ज्ञानावरणादिरूप कर्मसमूहको शत-सहस्त्र कोटि भवांमेंमणि चिन्ताकी अपेक्षा रखता है- कल्पवृक्ष बिना संकल्प करोडों जन्म लेकर-सय करता है उस अथवा उत्तने कर्मकिये और चिन्तामणि विना चिन्ता किये फल नहीं देनाः समूहको ज्ञानी-विवेकी मनुष्य मन-वचन-कायको क्रियाका परम्नु धर्म वैमी कोई अपेक्षा नहीं रखता - वह बिना संकल्प निरोध कर अथवा उसे स्वाधीनकर स्वरूपमें लीन हमा किरा और बिना चिन्ता किए ही फल प्रदान करना है। उच्छ वाममात्रमें-लीलामात्रमें-नाश कर डालता है।
जब धर्म स्वयं ही फल देता है और फल देनेमें कल्प- इससे अधिक विवेकका माहात्म्य और क्या हो सकता वृक्ष तथा चिन्तामणिको शनिको भी मात (पराम्न) करना है? यह विवेक ही चारित्रको 'सम्यचारित्र' बनाता है है, तब फल-प्राप्तिके लिए इच्छाएं करके-निदान बांधकर- और संसार-परिभ्रमण एवं उसके दुःश्व कप्टोंसे मुक्ति दिलाता अपने प्रान्माको व्यर्थ ही संक्लेशिन और पाकुलित करनेकी है। विवेकके बिना चारित्र मिथ्याचारित्र है. कोरा कायक्लेश हे क्या जरूरत है ? ऐमा करनेसे तो उल्टा फल-प्राप्तिके मार्गमें और वह संसार-परिभ्रमण तथा दुःख-परम्पराका ही कारण कांटे बोए जाते हैं। क्योंकि इच्छा फल-प्राप्तिका साधन न है। इसीसे विवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके अनन्तर चारित्रका होकर उसमें बाधक है।
. अाराधन बतलाया गया है; जैमा कि श्रीअमृतचन्द्राचार्य के इसमें सन्देह नहीं कि धर्म-साधनसे सब सुख प्राप्त निम्न वाक्यसे प्रगट हैहोते हैं। परन्तु नभी तो जब धर्मसाधनमें विवेकसे काम लिया न हि सम्यग्व्यपदेश चारित्रमज्ञानपूर्वक लमते ।