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अनेकान्त
[वष १३
झानानन्तरमुक्त चारित्राराधनं तस्मात् ।। ३८ | नहीं होता ? स्वच्छ, शुभ तथा शुद्ध भाव किसे कहते हैं ? और
-पुरुषार्थसिद्ध युपाय अस्वच्छ, अशुद्ध तथा अशुभ भाव किसका नाम है ? सांसाअर्थात्-अज्ञानपूर्वक-विवेकको साथमें न लेकर रिक विषय-सौख्यकी तृष्या अथवा तीव्र कषायके वशीभूत हो दसरोंकी देखा-देखी प्रथवा कहने-सनने मात्रसे-जो चरित्र- कर जो पुण्य-कर्म करना चाहता है वह वास्तव में पुण्यकर्मका का अनुष्ठान किया जाता है वह 'सम्यक् चारित्र' नाम नहीं सम्पादन कर सकता है या कि नहीं? और ऐसी इक्छा धर्मपाता-उसे 'सम्यक् चारित्र' नहीं कहते । इसीसे (भागममें)
की साधक है या बाधक ? वह खूब समझता है कि सकाम सम्यग्ज्ञानके अनम्तर-विवेक हो जाने पर-चारित्रके मारा- धर्मसाधन मोह-शोभादिसे घिरा रहनेके कारण धर्मकी कोटिसे धनका-अनुष्ठानका-निर्देश किया गया है-रत्नत्रय निकल जाता है। धर्म वस्तुका स्वभाव होता है और इसलिये धर्मकी पाराधनामें, जो मुक्रिका मार्ग है, चारित्रकी धारा
कोई भी विभाव परिणति धर्मका स्थान नहीं ले सकती। धनाका इसी क्रमसे विधान किया गया है।
इसीसे वह अपनी धार्मिक क्रियाओंमें तद्र.पभावकी योजनाश्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, प्रवचनसारमें, 'चारित्तं स्खलुधम्मो' द्वारा प्राणका संचार करके उन्हें सार्थक और सफल बनाता इत्यादि वाक्यके द्वारा जिस चारित्रको-स्वरूपाचरणको-वस्तु- है। ऐसे ही विवेकी जनोंके द्वारा अनुष्ठित धर्मको सब-सुखभाव होनेकेकारण धर्म बतलाया है वह भी यही विवेकपूर्वक का कारण बतलाया है । विवेककी पुट बिना अथवा उसके सम्यक् चारित्र है, जिसका दूसरा नाम साम्यभाव है और जो सहयोगक अभावमें मात्र कुछ क्रियाओं के अनुष्ठानका नाम ही मोह-क्षोभ प्रथया मिथ्यात्व राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादिरूप धर्म नहीं है। ऐसी क्रियाएँ तो जड़ मशीनें भी कर सकती विभावपरिणतिसे रहित पारमाका निज परिणाम होता है । हैं। और कुछ करती हुई देखी भी जाती है-फोनोग्रानके
वास्तवमें यह विवेक ही उस भावका जनक होता है जो कितने ही रिकार्ड खूब भक्ति-रसके भरे हुए गाने तथा भजन धर्माचरणका प्राण कहा गया है। बिना भावके तो क्रियाएं गाते हैं और शास्त्र पढ़ते हुए भी देखने में आते हैं । और फलदायक होती ही नहीं है । कहा भी है
भी जड़मशीनोंसे आप जो चाहें धर्म की बाह्य क्रियाएँ करा ___“यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या:" सकते हैं । इन सब क्रियाओंको करके जडमशीनें जिस प्रकार तदनुरूप भावके बिना पूजनादिककी, तप-दान-जपादिककी और धर्मात्मा नहीं बन सकती और न धर्मके फलको ही पा यहां तक कि दीक्षाग्रहणादिककी सब क्रियाएँ भा ऐसी ही निरर्थक सकती हैं, उसी प्रकार अविवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानक हैं जैसेकि बकरीके गलेके स्तन (थन), अर्थात् जिस प्रकार बकरी बिना धर्मकी कुछ क्रियाएँ कर लेने मात्रसे ही कोई धर्मात्मा के गले में खटकते हुए स्तन देखनेमें स्तनाकार होते हैं, परंतु वे नहीं बन जाता और न धर्मके फलको ही पा सकता है। ऐसे स्तनोंका कुछ भी काम नहीं देते-उनसे दूध नहीं निक- अविवेकी मनुष्यों और जड़ मशीनोंमें कोई विशेष अन्तर बता-उसी प्रकार बिना तदनुकूल भावके पूजा-तप-दान- नहीं होता-उनकी क्रियानोंको सम्यक्चारित्र न कह कर अपादिककी उन सब क्रियाएँ भी देखनेकी ही क्रियाएँ होती यांत्रिक चारित्र' कहना चाहिये। हां, जड़मशीनोंकी अपेक्षा हैं, पूजादिकका वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं ऐसे मनुष्योंमें मिथ्याज्ञान तथा मोहकी विशेषता होनेके कारण हो सकता है!
वे उसके द्वारा पाप-बन्ध करके अपना अहित जरूर कर लेते ज्ञानी विवेकी मनुष्य ही यह ठीक जानता है कि पुण्य हैं-जब कि जड़मशीनें पैसा नहीं कर सकतीं। इसी यांत्रिक किन भावोंसे बंधता है, किनसे पाप और किनसे दोनोंका बन्ध चारित्रके भुलावेमें पड़कर हम अक्सर भूले रहते हैं और यह
समझते रहते हैं कि इनने धर्मका अनुष्ठान कर लिया ! इसी ®चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो समोत्ति णिदिहो। तरह करोबों जन्म निकल जाते हैं और करोड़ों वर्षकी बालमोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥ तपस्यासे भी उन कोका नाश नहीं हो पाता, जिन्हें एक x देखो, कल्याणमन्दिरस्तोत्रका 'आकरिणतोऽपि' मा
ज्ञानी पुरुष त्रियोगके संसाधन-पूर्वक क्षणमात्रमें नाश कर माद पद्य।
डालता है। प्रस्तु। भावहीनस्य पूजादि-तपोदान-जपादिकम् । इस विषयमें स्वामी कार्तिकेयने, अपने अनुप्रेक्षा ग्रन्थमें, व्यर्थ दीक्षादिकं च स्यादजाकण्ठे स्तनानिव॥" कितना ही प्रकाश डाला है। उनके निम्न वाक्य खास तौरसे