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भान देने योग्य है :-
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ध्याय
किरण २) सकाम धर्मसाधन
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होता है। इसलिए उसके द्वारा वीतराग भगवान्की पूजाकम्म पुगणं पावं हेऊ तेसि च होंति सच्छिदरा। भकि-उपासना तथा स्तुतिपाठ. जप-ध्यान, सामायिक, स्वामंदकसाया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु॥ ध्याय, नप, दान और प्रत-उपवासादिरूपसे जो भी धार्मिक जीवो विहवइ पावं अइतिव्वकसायपरिणदो णिच्च। क्रियाएँ बनती हैं वे सब उसके प्रारमकल्याणके लिए नहीं जीबो हवेइ पुगणं उवसमभावेण संजुत्तो॥ होतों-उन्हें एक प्रकारकी सांसारिक दुकानदारी ही समझना जोअहिलसेदि पुराणं सकसाभो विसयसोक्खतण्हाए। चाहिए । ऐसे लोग धार्मिक क्रियाएं. करके भी पाप उपार्जन दूरे तस्म विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि || करते हैं और सुखके स्थानमें उल्टा दुखको निमन्त्रण देते हैं। पुण्णासएण पुरण जदो गिरीहस्स पुण्णसंपत्ती। ऐसे लोगोंकी इस परिणतिको श्री शुभचन्दाचार्याने, ज्ञानार्णइय जागिऊण जइणो पुणे वि म आयरं कुणह॥ वग्रन्थके २५वें प्रकरणमें, निदान-जनित प्रात्त ध्यान लिखा पुण्णं बंधदि जीवो मंदकसाएहिं परिणदो संतो। है और उसे घोर दुःखोंका कारण बतलाया है । यथातम्हा मंदकसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि बंछा।। पुण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यजिनेन्द्रामराणां,
-गाथा नं० १०, ११०,४१० से ४१२ यद्वा तैरेव वांछयहितकुलकुजच्छेदमत्यन्तकोपात् । इन गाथाओं में बतलाया है कि-'पुण्य कर्मका हेतु पूजा सत्कार-लाभ-प्रभृतिकमथवा याचते यद्विकल्पः सच्छ, (शुभ परिणाम है और पाप कर्मका हेतु अस्वच्छ म्यादात्त तन्निदानप्रभवमिहनृणां दुःखदाबोप्रधामं ॥ 'अशुभ या अशुद्ध) परिणाम । मंदकषायरूप परिणामों को
अर्थात् -अनेक प्रकारके पुण्यानधनोंको-धर्म कृत्योंको म्वच्छ परिणाम और तीबकवायरूप परिणामोंको अस्वच्छ
करके जो मनुष्य तीर्थकरपद तथा दूसरे देवोंके किसी पदकी परिणाम कहते हैं। जो जीव अनितीन कषायसे परिणत होता
इच्छा करता है अथवा कुपित हुआ उन्हीं पुण्याचरणोंके है, वह पापी होता है और जो उपशमभावसे-कषायकी
द्वारा शत्रुकुल-रूपी वृक्षोंके उच्छेदकी वांछा करता है, और मंदतासे-युक रहता है वह पुण्यात्मा कहलाता है । जो या अनेक विकल्पोंके साथ उन धर्म-कृत्योंको करके अपनी जीव कषायभावसे युक्त हुआ विषयमौख्यकी तृष्णासे-इंद्रिय- लौकिक पूजाप्रतिष्ठा तथा लाभादिककी याचना करता है, विषयको अधिकाधिक रूपमें प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छासं उसकी यह सब सकाम प्रवृत्ति 'निदानज' नामका, मार्तध्यान पुण्य करना चाहता है-पुण्य क्रियाभोंके करनेमें प्रवृत्त होता है। ऐसा पार्तध्यान मनुष्योंके लिए दुःख-दावानलका अनहै-उससे विशुद्धि बहुत दूर रहती हैं और पुण्य-कर्म स्थान होता है -उससे महानुःखोंकी परम्परा चलती है। विशुद्धिमूलक-चित्तकी शुद्धि पर धाधार रखने वाले होते हैं। वास्तवमें प्रार्तध्यानका जन्म ही संक्लेश परिणामोंसे अतः उनके द्वारा पुण्यका सम्पादन नहीं हो सकता-वे होता है, जो पाप बन्धके कारण हैं। ज्ञानावके उक्त प्रकरअपनी उन धर्म नामसे अभिहित होनेवाली क्रियाओंको यान्तर्गत निम्न श्लोकमें भी पाभ्यानको कृष्ण-नील-कापोत करके पुण्य पैदा नहीं कर सकते । चूकि पुण्यफलकी इच्छा ऐसी तीन अशुभ लेश्याभोंके बल पर हो प्रकट होने वाला रखकर धर्मक्रियाओंके करनेसे-पकाम धर्मसाधनसे-पुण्य- लिखा है और साथ ही यह सूचित किया है कि यह मार्चकी सम्प्राप्ति नहीं होती, बल्कि नकाम-रूपसं धर्मासाधन यापी
ध्यान पाप,रूपी दावानलको प्रज्वलित करनेके लिए इन्धनक
वान पनि करने वाले के ही पुण्यकी संप्राप्ति होती है, ऐसा जानकर पुण्य- समान हैमें भी प्रासक्रि नहीं रखना चाहिए । वास्तव में जो जीव मंद कृष्ण नीलाद्यसल्लेश्याबलेन प्रविज़म्भते। कषायसे परिणित होता है वही पुण्य बांधता है, इस लिये इद दुरितदावाचिः प्रसूतेरिन्धनोपमम् ॥१०॥ मन्दकषाय हो पुण्यका हेतु है, विषयवांछा पुरयका हेतु नहीं इससे स्पष्ट है कि लौकिक फलोंकी इच्छा रखकर धर्म
विषयवांछा अथवा विषयासक्ति तीनकषायका लक्षण है साधन करना धर्माचरणको दूषित और निष्फल ही नहीं और उसका करने वाला पुण्यसे हाथ धो बैठता है। बनाता, बल्कि उल्टा पापबन्धका कारण भी होता है, और
इन वाक्योंसे स्पष्ट है कि जो मनुष्य धर्म-साधनके इसलिए हमें इस विषयमें बहुतही सावधानी रखनेकी जरूरत द्वारा अपने विषय-कषायोंकी पुष्टि एवं पूर्ति चाहता है उसकी है। हमारा सम्यक्त्व भी इससे मलिन और खण्डित होता कषाय मन्द नहीं होती और न वह धर्मके मार्ग पर स्थिर ही है। सम्यक्रवके पाठ अंगोंमें निःकाषित नामका भी..