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________________ हिन्दी-भाषाके कुछ ग्रन्थोंकी नई खोज भारतीय वाङ्मयमें जैनसाहित्यकी प्रचुरता और विशा- जिसने शास्त्रोंका अच्छा अभ्यास किया था और जिनपूजादिमें लता उसकी महत्ताकी द्योतक है । संस्कृत प्राकृत अपनश, रत रहती थी। चिन्तामनकी जाति खरेलवाल थी और गोत्र मराठी, गुजराती, राजस्थानी कनाडी, बंगाली तामिल आदि था 'सावदा'। इन्होंने इस ग्रंथकी रचना विक्रम संवत् 1501 विविध भाषाओंमें जैनसाहित्यकी रचना की गई है। में कूरमवंशके राजा गजसिंहके पुत्र छत्रमिंधके राज्यमें की है। व्याकरण, छन्द काव्य कोष, अलंकार, श्रायुर्वेद ज्योतिष, पद्यानुवादके कुछ दोहे मूल गाथाओंके साथ दिये जा रहे हैं। सिद्धान्त, साहित्य, दर्शन, कथा, पुराण चरित्र इतिहास और दसणमलो धम्मो उवइहो जिणवेरहिं मिस्माणं । धानु-रत्न-मुद्रादि विषयों पर जैनसाहित्य प्रचुर मात्रामें लिखा तं सोऊणसकरण देसणहीणो ण बंदिव्वो ॥१॥ गया है। कितना हो साहित्य राज्य विप्लव और साम्प्रदायिक मूल धम्म दंसन अमल, सुनो भव्य निज कान । विद्वेष आदिके कारण विनष्ट हो गया है। फिर भी जो कुछ दंसन हीन न दिए, भाष्यो श्रीभगवान ||२|| किसी तरह अवशिष्ट रह गया है वह विविध शास्त्रभंडारों दमण भद्रा भद्रा दंसगाभट्टरस पत्थि रिणव्वाणं । में छितरा पड़ा हुया अपने जीवनकी सिसकियाँ ले रहा है। मिज्झति चरिय भट्टा दसणभट्टा ण मिझति ॥३॥ यदि उनसे उसका समुन्द्वार नहीं किया गया, तो फिर हमें दंसन भ्रप्ट सुभ्रष्ट है, ताकों मुकति न होइ। उसके अस्तित्वसे सदा के लिए वंचित रहना पड़ेगा। संस्कृत तिरे भ्रष्टचारित्र फिर दंसण भ्रष्ट न कोइ ।। ३।। प्राकृतादिके साहित्यको छोड़कर हिन्दी भाषाका बहुतसा सा- सम्मत्तरयण भट्टा जाणता बहुविहाई सत्थाई। हित्य अभीतक विद्वानोंकी दृष्टिसे अोमल पड़ा हुआ है, आराहणा विरहिया भमंति तत्त्थेव तत्त्थेव ।।४॥ जिसके प्रकाशमें लानेका कोई ठोस प्रयन्न नहीं हो रहा है। सत्य-रतन आराधना इनसौं जे नर भ्रष्ट।। खासकर गुच्छक ग्रन्थों में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिंदी जबपि बह विधि- पर्दै तिनको भवभव नष्ट की अनेकों अभुतपूर्व रचनाएँ उपलब्ध होती है। हिन्दी x x x भाषादिको ऐसी कुछ अज्ञात रचनाओंका परिचय देना ही इस रिहर तल्लो वि गारो ममा गच्छेह एइ भवकोड़ी। लेखका प्रमुख विषय है। आशा है विद्वान इस प्रकारके नृतन तहविण वावद सिद्धि संसारत्थो पुणो भणिदो ॥८॥ प्राज्ञात एवं अप्रकाशित साहित्यको प्रकाशमें लानेका यन्न इरिद्वरसम नर स्वर्ग प्रति फिरिफिरि आवे जाइ। करेंगे। लहें न शिव भवकोटिलौं मंसारी अधिकाय ॥ षट प्राभृत पद्य णिचेल पाणिपनं उबट्ट परम जिणवरिंदेहि । प्राचार्य कुन्दकुन्द बहुश्रुत विद्वान थे। उनकी उपलब्ध ___एको विमोवग्वमग्गो सेसा य श्रमग्गया मचे ॥१०॥ रचनाओंमें षट्पाहुड ग्रन्थ अपनी खास विशेषता रखता है। षट् पाहुडपर ब्रह्मश्रु तसागरकी संस्कृत टीका भी मुदित हो जिनसेवक जिनदाम मुत, देवीसींध मुजान। चुकी है और पं० जयचंदजी कृत हिन्दी टीका भी प्रकाशित गोत सावडा प्रकट है, खंडेल बाल सुख धाम ॥ है । देहलीके पंचायती मन्दिरमें उसका हिन्दी दोहा पद्यानु- कवित्तछन्द-जिनपदनमों चिंतामनि ममनाम । वाद उपलब्ध हुआ है जिसकी पत्रसंख्या ३५ है । और प्रति- भाष देवी सींध सब रूदमाम जगकाम ॥ लिपि मम्वत् १८१६ कार्तिक शुक्ला द्वितियाकी लिग्बी हुई नवलसिंघ भाई भनौ जिनचरणनिको दाम । है। जिसका परिचय नीचे दिया जाता है जिससे पाठक वाई तुलमा बहिनने कीनों श्रुत अभ्याम ॥ पद्यानुवादके रहस्यसे सहज ही परिचित हो सकेंगे। जिन पूजाश्रुत दयामय उभय पढ़त दिन रैन । इस पद्यानुवादके रचयिता जिनदासके पुत्र देवीसिंह थे भाषा षट्पाहुड सुनै धरै सुउरमें चैन । जिनका दूसरा नाम चिन्तामनि था । इनके भाईका नाम छत्रमिंध नरवर पती राजत कामवंश। नवलसिंब था। और तुलसाबाई नामकी एक बहिन भी थी बुद्धिवान गजसिंघ मुन, निजकुल को प्रवतंश ।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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