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________________ क्या ग्रंथ-सूचियों आदि परसे जैनसाहित्यके इतिहासका निर्माण सम्भव है ? (परमानन्द शास्त्री) कुछ विद्वानोंका खयाल है कि भारतीय जैनवा मयके भकिसे जिनवाणीका उद्धार हो सकता है। प्राज यदि जिनसाहित्यका इतिहास उन साहित्यिक ऐतिहासिक अनेकान्तादि वाणी न होती तो हमें जिन मूर्तियोंकी पूजा, महत्ता और पत्रों ग्रन्थ सूचियों और प्रशस्तिसंग्रह आदि परसे संकलित सांसारिक दुखोंसे छूटनेका उपाय, एवं प्रारम-बोधि प्राप्त किया जा सकता है। जो समय-समय पर उनमें विद्वानोंके करनेके मार्गका संदर्शन मिलना दुर्लभ था । जो मच्चे गुरु द्वारा लिखे गये अन्वेषणात्मक लेखोंमें निबद्ध हुश्रा पाया जनोंके अभाव में भी जिनवायी हमारे उत्थान और पतनका जाता है। उस परसे ऐतिहासिक परिचय लिखनेमें बहुत और स्वाधीनता प्राप्त करनेका उपदेश देती है। ऐसी पवित्र कुछ सहायता मिल सकती है। इसके लिये ग्रन्थ भण्डारोंको जिनवाणीकी आज हम उपेक्षा कर रहे हैं। यह कितने खेद देखने तथा सूची निर्माण करने एवं श्रावश्यक नोटोंके तय्यार का विषय है। हजारों लाखों ग्रन्थ ग्रंथ भण्डारोंमें पड़े-पडे करने में समय और शकिको खर्च करनेकी आवश्यकता नहीं है। विनष्ट हो रहे हैं दीमक और चूहोंके भषय बन रहे हैं और और न इसकी वजहसे काममें शिथिलता लानेकी जरूरत है। बनते जा रहे हैं । कुछ हमारो लापर्वाहीसे भी विनष्ट हुए यह सब कार्य उन व्यक्तियों, संस्थाओं तथा नेताओंका है जो हैं। और कितनोंकी हम रक्षा करनेमें असमर्थ रहे हैं। कुछ इस ओर अपनी दिलचस्पी रखते हैं। और जो अपने प्रयत्न राज्य विप्लवोंमें विनष्ट हुए हैं। परतु जो शेष किसी तरह द्वारा भंडारोंसे खोजबीन करके महत्वपूर्ण ग्रन्थोंको उपलब्ध बच गए हैं। उनके संरक्षणकी ओर भी हमारा ध्यान कर उनका परिचय विद्वानों और जनताके लिये प्रकट करते नहीं है। रहते हैं। क्योंकि शास्त्रभंडारोंका अवलोकन करना बहु यदि करोड़ों अरबोंकी सम्पत्ति दैवयोगसे विनष्ट हो जाय श्रम साध्य होनेके साथ साथ आर्थिक असुविधाओंके कारण तो वह पुनः प्राप्त की जा सकती है। परन्तु जिन प्राचार्योंके अब तक सम्पन्न नहीं हो सका है । समाजका इस ओर कुछ बहुमूल्य परिश्रम और अध्यवसायसे जो ग्रन्थ लिखा गया भी ध्यान नहीं है । समाजका अधिकांश प्रर्य मन्दिरोंके है उसके विनष्ट हो जाने पर या खंडित हो जाने पर प्रायः फर्श, पूजा, प्रतिष्ठा, मेला और स्थोत्सवादि जैसे कार्यों में कोई भी विद्वान उसे उसके निर्दिष्ट रूपमें पुन: बना कर व्यय किया जाता है। समाजका ध्यानभी प्रायः इन्हीं सब तैयार नहीं कर सकता। ऐसी स्थितिमें समाजके धनिकों कार्योंकी ओर अधिक रहता है। मूर्ति-मंदिर निर्माणको ही और विद्वानोंका आवश्यक कर्त्तव्य हो जाता है कि वे जिनधनी लोग धर्मका खाम अझ मानते हैं । जनताकी केवल वाणीके समुद्धारका पूरा प्रयत्न करें। अर्थाभावके कारण भक्रि पाषाण-मूर्तियों में रह गई हैं। किंतु जिस जिनेंद्र उसके समुद्धारमें जो रुकावटें हो रही हैं-विघ्न-बाधाएँ वाणीके द्वारा जगत्का कल्याण हुश्रा है भूले हुए एवं पथ- पा रही हैं-उन्हें दूर कर उसके उद्धारका प्रयत्न करना, भ्रष्ट पथिकोंक लिये सन्मार्गका बोध जिससे मिला है। और उसे हृदयमें अवधारण कर अन्तः कषाय-शत्रुओं पर कर्म बंधनको अनादि परतंत्रता निसके द्वारा काटी जाती है। विजय प्राप्त करना ही जिनवाणीको सच्ची भक्रि है, देव और गुरुके अभावमें भी जो वस्तु-स्थितिकी निदर्शक हैं उपासना है। अस्तुः उस भगवती वाणीकी ओर जनताका कोई ध्यान नहीं है। वर्तमानमें जो ग्रन्थ-सूचियों प्रकाशित हुई हैं उनमें भगगन महावीर कैसे जिन बनें, उन्होंने दोषों और कषायों अनेक ऐमी स्थूल भूलें रह गई हैं जिनसे केवल इतिहासमें को कैसे जीता। कठोर उपसर्ग परीषह जन्य वेदनाओं पर ही गल्ती नहीं होगी, किन्तु उस लेखककी कृतिका भी किस तरह विजय पाकर स्वारमोपलब्धिके स्वामी हुए हैं। यथार्थ परिज्ञान न हो सकेगा, उससे ऐतिहासिक ज्ञान पूरा न खेद है कि आज हम लोग उस जिनवाणीकी महत्ताके होनेके साथ अन्य द्वारा नहीं रची गई कृतियोंका भी मूल्यको भूल चुके हैं, यही कारण है कि हम उसके उद्धार असत्य बोध होगा। जो यथार्थतः सत्यसे बहुत दूर है मैं तककी चिंता नहीं करते। हम उसे केवल हाथ जोड़नेकी यहाँ ऐसी एक दो कुछ भूलोंका दिग्दर्शन मात्र कराऊँगा, वस्तु मात्र समझते हैं । और अर्ध चढ़ा देते हैं । इतनी मात्र जिससे पाठक और अन्वेषक विद्वान यह सहज ही निश्चय
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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