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२८८] अनेकान्त
[ वर्ष १३ कर सकेंगे कि समग्र जैनसाहित्यका इतिहास लिखनेसे पूर्व श्रीमते वर्द्धमानाय केवलज्ञानचक्षुषे। ग्रंथभण्डारोंका देखना कितना जरूरी और भावश्यक है। संसारश्रमनःशाय नमोस्तु गुणशालिने ॥३॥ जिसकी भोर कुछ विद्वानोंका ध्यान नहीं है। उससे अन्वे- गौतमादीन्मुनीन्नत्त्वा ज्ञानसाम्राज्यनायकान् । षक विद्वान सहज हीमें यह जान सकेंगे कि मौजूदा ग्रन्थ वक्ष्येऽनतव्रतस्योच्चैः विधानं सिद्धि लब्धये ॥४ सूचियोंको बिना जांचे हुए यदि हम उस परसे साहित्यके अन्त भाग:इतिहासका निर्माण करेंगे, तो वह कितना स्खलित, और पट्टोदयादिशिरसि प्रकटे प्रभेद्रोः श्रुटिपूर्ण तथा अपूर्ण रहेगा। यह उसके संकलित हो जाने
श्रीपद्मनंदितचित परमोदयं यः। पर मंथ-भंडारोंके अन्वेषण द्वारा जांच करनेसे स्वयं फलित
तेन प्रकाशितमनंतकथा सरोज हो जायगा।
भव्यालयोऽत्र मकरंद-रसं पिबन्तु । जयपुरसे प्रकाशित ग्रन्थ-सूची द्वितीय भागके पृष्ठ इति भट्रारक पद्मनन्दि विरचिता अनन्तकथा सम्पूर्णा २४०पर १३०८०पर लब्धिविधान कथा दी हुई है जो १२ इति ॥८शा
झत ॥८ ॥ पत्रात्मक तथा पं. अभ्र.व कृत संस्कृतकी रचना बतलाई
इसमें २२ कथाएँ भ. पद्मनन्दिके शिप्य भट्टारक गई है। मैंने इस कथाके जानने और उसके आदि अंत भागमें
सकलकीतिको हैं:-जिनके नाम पद्यादि संख्या सहित पाए जाने वाले ऐतिहासिक भागको जाननेकी दृष्टिसे नोट किया था। जब जयपुर जाकर उस प्रथको निकलवा कर उसका
निम्न प्रकार हैं:- एकावलीयत कथा, पद्य ५८, २ चादि-अंत भाग देखा, तब उसके अंत: रहस्यका पता चला और
द्विकावली कथा ७६, ३ रत्नावलीवत कथा, १५, ४ नंदि
श्वरपंक्ति विधान कथा, ११,५शीलकल्याणक विधि, ७१, तब यह मालूम हुआ कि यह ग्रंथ अकेला एक ही नहीं है किंतु इसके साथ कई अन्य कवियोंकी क्थाएँ और भी
६ नक्षत्रमाला विधान, २८, ७ विमानपंक्रि विधि, ४१,८ संग्रहीत हैं। जिनका नामोल्लेख तक ग्रंथ-सूचीमें कहीं नहीं
मेरुपंक्रि विधि, ३६, श्रुतज्ञानकथा, ७७, १० सुग्वसम्पत्तिउपलब्ध होता; किन्तु उसमें पंडित अभ्रदेवकी भी चार और
वत फल कथा, ४३, ११ श्रुतस्कंधविधान ५६, १२ दशकथाएँ शामिल हैं । जिससे ग्रंथकी कुन्त कथा संख्या इकत्तीस
लाक्षणिक कथा ७५, १३ कनकावली ४६, १४ वृहदमुक्राहो गई है। और इस कथा संग्रहके लेखक मुनि ज्ञानभूषण
वली २५, १५ भावनापंचविंशतिव्रतकथा ३४, १६ सर्वतोबतलाए गए हैं । अब मैं ऐतिहासिक दृष्टिसे उनका संक्षिप्त
भद्रतप कथा, ३७, १७ जिनपुरंदर विधि, ८६, १८ मुक्कापरिचय देना उचित समझता हूँ जिससे पाठक उनके नामादि
वली कथा, ८१.१६ अक्षयनिधि विधान कथा, ४८, २० से परिचित हो सकें।
सुगन्धदशमीकथा, ११४, २१ जिनमुखावलोकनकाथा २५, इस कथा संग्रहमें अनन्तव्रतकी एक कथा भ. प्रभाचंद्र के
२२ मुकुट सप्तमी कथा ५५
र शिष्य पानन्दी की है जो विक्रमकी श्वी ५वीं शताब्दीक
कथा संग्रहमें दो कथाएँ-रुक्मणि विधान और प्रारम्भिक विद्वान थे और जिनकी अन्य कई कृतियों प्रकाशमें
चन्दनषष्ठी-ये दो कृतियां कवि छत्रसेनकी हैं जिनका धादि मा चुकी हैं जिसकी श्लोक संख्या ८५ है जिसका श्रादि
अंत भाग इस प्रकार है:
रुक्मणि विधान कथाअंत भाग इस प्रकार है
आदि भागआदिभागश्रीमते भुवनांभोज भास्वते परमेष्ठिने ।
जिनं प्रणम्यनेमीशं संसारार्णवतारकम् । सर्वज्ञाय जिनेन्द्राय वृषभस्वामिने नमः ॥ १॥
रुक्मणिचरितं वक्ष्ये भव्यसंबोधकारणम् ॥ १
अन्त भागधर्मोपदेश पीयूषैर्भव्याराम मनेकधा।
यो भव्यः कुरुते विधान ममलं स्वर्गापवर्गप्रदं । यः पुपोष नमस्तस्मै भक्त्त्याऽनंताय तायिने ॥ २॥ योऽन्यं कारयते करोति भविनां व्याख्याय संबोधन ® देखो वीरसेवामंदिरसे प्रकाशित जैनमध प्रशस्ति संग्रह भुक्त्वाऽसौ नरदेवयोवरसुखं सच्छत्रसेनहतं, प्रस्तावना पृ.
आख्याती जिननायकेन महतीं प्राप्नोति जैनीश्रियं ।६१