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________________ D किरण ३] श्रमण संस्कृतिमें नारी [८७ अन्ध-रचना कितने पूर्व हुई है इसके जाननेका अभी कोई साधन नहीं है। -टिप्पणका प्रारम्भिक नमूना इस प्रकार है:अनेक नारियाँ विदुषी होनेके साथ २ लेखिका और कवियित्री “वल्लहो- वल्लभ इति नामान्तरं कृष्णराज देवस्य। भी हुई हैं उन्होंने अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। पर वे सब पज्जतऊ पर्याप्त मलमिति यावत् ।" दुकिय पहाएरचनाएं इस समय सामने नहीं हैं । आज भी अनेक नारियाँ दुःकृतम्य प्रथमं प्रख्यापनं विस्तरणं वा । दुःकृत विदुषी, लेम्विका तथा कवियित्री हैं, जिनकी रचना भावपूर्ण होती है। भारतीय जैनश्रमण परम्परामें ऐसी पुरातन नारियाँ मार्गो वा । लहु मोक्षं देशतः कर्मक्षयं लाध्वेति शीघ्र पर्यायो था। संभवतःकम ही हुई है जिन्होंने निर्भयतासे पुग्यों समान नाग पंचसु पंचसु पंचसु-भरतैरावतविदेहाभिधानासु जातिके हितकी दृष्टिसे किमी धर्मशास्त्र या प्राचार शास्त्रका प्रत्येकं पंच प्रकारतया पंचसु दशसु कर्मभूमिसु । दया निर्माण किया हो, इस प्रकारका कोई प्रामाणिक उल्लेख सहीसु-धर्मो दया सख्यं ईश इव-दया सहितासु वा। हमारे देवनेमें नहीं पाया। धुउ पंचमु-विदेहभूमिसु पंचसु ध्र वो धर्मसूत्रैक एवं ___ हां, जैन मारियों के द्वारा रची हुई दो रचनाएँ मेरे चतुर्थः कालः समयः । दशसु-पंचभरत पंचरावतेषु । देग्वनेमें अवश्य पाई हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे भी कालावेक्खए-वर्तमान (ना) सर्पिणी कालापेक्षया। प्राकृत, संस्कृत और गुजराती भाषाकी जानकार थीं। इतना पुनः देवसामि-प्रधानामराणां त्वं स्वामी । वत्ताणुही नहीं किन्तु गुजराती भाषामें कविना भी कर लेनी थी। हाणे--कृपि पशुपालन वाणिज्या च वार्ता । खत्तधनुये दो रचनाएँ दो विदुषी अयिकाओं के द्वारा रची गई है। क्षत्रदण्डनीति । परमपत्तु-परमा उत्कृष्टा गणेन्द्रा उनमें से प्रथमकृति तो एक टिप्पण ग्रंथ है जो अभिमान ऋषभ-सेनादयस्तेषां परम पूज्यः" ।। मेरु महाकवि पुष्पदन्तकृत 'जसहर चरिऊ' नामक ग्रन्थका दूसरी कृति समकितराम है, जो हिन्दी गुजराती संस्कृत टिप्पण है, जिसकी पृष्ठ संख्या १६ है और जिसकी। मिश्रित काव्य-रचना है। इम ग्रन्थकी पत्र संस्था है, खंडित प्रति दिल्लीके पंचायतीमंदिरक शास्त्रभण्डारमें और यह ग्रन्थ ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती-भवन मौजूद है। जिसमें दो से ११और स्वाँ पत्र अवशिष्ट है। झालरापाटनके शास्त्रभण्डारमें सुरक्षित है। इस ग्रन्थमें शेष मध्यके ७ पत्र नहीं है। सम्भवतः व उम दुर्घटनाक सम्यक्त्वोपादक पाठ कथाएं दी हुई हैं, और प्रसंगवश अनेक शिकार हुए हों, जिसमें दिल्लीके शास्त्र भण्डारों इस्त- अवान्तर कथा भी यथा स्थान दी गई हैं। दूसरे शब्दों में लिम्बिन अन्धोंके ऋटित पत्रोंको बोरीमें भरवाकर कलकत्ताक यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ संस्कृत सम्यक्त्व कौमुदी ममुह में कुछ वर्ष हुए गिरवा दिया गया था। इसी तरह का गुजराती पद्यानुवाद है। इसकी रचयित्री प्रार्यारत्नमती पुरानन खण्डित मूर्तियोंको भी देहलीके जैन समाजने अवज्ञाक है। ग्रन्थमें उन्होंने अपनी जो गुरु परम्परा दी है वह भयसे अंग्रेजोंके गज्यमें बम्बईके समुद्रमें प्रवाहित कर दिया। इस प्रकार है: मूलमंघ कुन्दकृन्दान्वय सरस्वतिगच्छमें भट्टारक पद्मनन्दी, श्रा, जिन पर मुनते हैं कितने ही लेग्व भी अंकित थे। देवेन्द्रकीति, विद्यानन्दी, महिलभूषण, लक्ष्मीचन्द, वीरचन्द्र, खेद है ! समाजके इस प्रकारके अज्ञात प्रयत्नसे ही ज्ञानभूषणा, प्रार्या चन्द्रमती, विमलमती और एनमती । कितनी ही महत्वपूर्ण ऐतिहामिक सामग्री विलुप्त हो गई है। ग्रन्थका आदि मंगल इस प्रकार है:श्राशा है दिल्ली समाज आगे इस प्रकारकी प्रवृत्ति न होने - देगा। इस गुरु परम्परामें भहारक देवेन्द्रकीर्ति सूरतको गहीके यशोधरचरित टिप्पण की वह प्रति मं० १९६६ मंगसिर भट्टारक थे। विद्यानन्दि सं० १५५८ में उस पद पर विगज मान हुए थे । मल्लिभृपण सागवाड़ाया मालवाकी गहीके भट्टाबदी १० बुदवारको लिखी गई है। टिप्पणके अन्तमें निम्न रक थे। लचमीचन्द और वीरचन्द्र भी मालवा या सागवाड़ा पुप्पिका वाक्य लिखा हुआ है-'इति श्री पुष्पदन्तकृत यशोधर के आस-पास भट्टारक पद पर आसीन रहे हैं । ये ज्ञानभुषण काव्यं टिप्पणं अर्जिका श्रीरणमतिकृतं संपूर्णम् ।' टिप्पणके तत्त्वज्ञान तरंगिणीक कर्तासे भिम है। क्योंकि यह भ० बीरइस पुष्पिका वाक्यसे टिप्पणग्रन्थको रचयत्री 'रणमति' चन्द्रके शिष्य थे। और तनज्ञान तरंगिणीक कर्ता भ. आर्यिका है और उसकी रचना सं० १५६६ से पूर्व हुई है। भुवनकीर्तिके शिष्य थे।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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