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________________ - - किरण भगवान महावीर [२३३ कारण 'महावीर' और 'सन्मति' नामसे लोकमें ख्यापित कल्याण करना चाहते थे। इसी कारण उन्हें सांसारिक हुए। बालक वद्ध मान बाल्यकालसही प्रतिभा सम्पन्न परा- भोग और उपभोग अरुचिकर प्रतीत होते थे। वे राज्य. क्रमी, वीर, निर्भय तथा मति-श्रुत-अवधिरूप तीन ज्ञान-नों कर दीक्षित होना बतलाया गया है । इससे स्पष्ट है कि शेष के धारक थे। उनका शरीर अत्यन्त मुन्दर और मनमोहक पाँच तीर्थकर कुमारअवस्थामें ही दीक्षित हुए हैं। इसीसे था। उनकी मौम्य प्राकृति देखते ही बनती थी और उनका टीकाकार अभयदव मूरिने अपनी वृत्तिमें 'शेषास्तु पंचकुमारमधुर संभाषण प्रकृतिः भद्र और लोकहितकारी था। उनके भाव एवेत्याहच' वाक्यके माथ 'वीरं अरिष्टनेमि' नामकी तेज पुजसे वैशालीका राज्यशासन चमक उठा था । उस समय वैशाली और कुण्डपुरकी शोभा दुगणित हो गई थी वीरं अरिट्टनेमि पास मल्लिं च वासुभुज च । और वह इन्द्रपुरीसे कम नहीं थी। पा मानगा जिणे अवसेसा आसि रायणा ॥२२१॥ वैराग्य और दीक्षा रायकुलेसुऽवि जाया विसुद्ध बंमेयवित्तिअ कुलेसु । भगवान महावीरका बाल्यजीवन उत्तरोत्तर युवावस्था न य इत्थियाभि से आ कुमारवामि पञ्चइया ॥२२२॥ में परिणत हो गया । राजासिद्धार्थ और त्रिशलाने महावीर - आवश्यक नियुक्रि पत्र १३६ का वाहिक सम्बन्ध करने के लिए प्रेरित किया क्योंकि इन गाथाओंमें बतलाया गया है कि वीर, अरिष्टनेमि, कलिंगदेशक राजा जितशत्रु, जिमके माथ राजा सिद्धार्थकी छोटी पार्श्वनाथ, मल्लि और वासुपूज्य इन पांचोंको छोड़कर शेष बहिन यशोदाका विवाह हुआ था, अपनी पुत्री यशोदाक १६ तीर्थकर राजा हुए हैं। ये पांचों तीर्थकर विशुद्ध बंशों, पाथ कुमार व मानका विवाह सम्बन्ध करना चाहता था, ॥ चाहता था, क्षत्रिय कुलों और राजकुलोंमें उत्पन्न होने पर भी स्त्री परन्तु कुमारवर्द्धमानने विवाह सम्बन्ध करानेके लिए मथा पाणिग्रहण और राज्याभिषेकसे रहित थे तथा कुमारावस्थामें इकार कर दिया-वे विरक्र होकर तपमें स्थित हो गए। ही दीक्षित हुए थे । गाथामें प्रयुक्त 'न य इत्थिाभिसेश्रा ही इपस राजा जितशत्रु का मनोरथ पूर्ण न हो सका है। क्योंकि कुमारवामीम पव्वइया' ये दोनों वाक्य खास तौरसे ध्यान कमारवमान अपना श्रान्म-विकास करते हुए जगतका दन योग्य हैं। इनमसं प्रथम वाक्यका अर्थ टिप्पणमें निम्न (अ) भवानकिश्रेणिक वत्तिभूपति नृपेन्द्रसिद्धार्थकनीयसीति प्रकारस विशद किया गया हैइमं प्रसिद्ध जिनशत्रु माग्व्ययाप्रतापबन्तं जितशत्रुमंडलम् ॥॥ स्त्री पाणिग्रहण-राज्याभिषेकोभयरहिता इत्यर्थः।' जिनेन्द्रवीरम्य ममुद्भवोत्सवे तदागतः कुन्दपुरं सुहृत्परः। -देखो, आवश्यक सूत्र भागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित । मुपूजितः कुदपुरस्य भूभृता नृपोयमाम्बण्डलतुल्यविक्रमः ॥७॥ अावश्यक नियुक्ति की 'गामायारा विसया जे भुक्ता यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया वीर विवाह मंगलम् । कुमाररहिह' नामकी गाथासे उक्त विषयकी और भी पुष्टि अनेककन्या परिवारयाम्हन्समीक्षतु नुगमनोरथं तदा ॥८॥ हो जाती है । परन्तु कल्प-सूत्रकी गत समरवीर राजाको स्थितऽधनायतपमि स्वरभवि प्रजातकवल्य विशाललोचन । पुत्री यशोदासे विवाह-सम्बन्ध होने और उससे प्रियदर्शना जगद्विभृत्य विहरत्यपि क्षिति क्षितिं विहाय स्थितवांस्तपस्य॥॥ नामकी लडकीके उत्पन्न होने और उसका विगह जामालिके -हरिवंशपुराणे जिनसनाचार्यः माथ करनेकी मान्यताका मूलाधार क्या है ? यह कुछ मालूम (श्रा) श्वेताम्बर माम्प्रदायमें महावीर के विवाह-सम्बन्धमें नहीं होता और न महावीरके दीक्षित होनेसे पूर्व एवं पश्चात् दो मान्यताएँ पाई जाती हैं। विवाहित और अविवाहित । यशोदाक शेष जीवनका अथवा उसकी मृत्यु श्रादिके संबंधों कल्पसूत्र और आवश्यक-भाप्यकी विवाहित मान्यता है और ही कोई उल्लेख श्वेताम्बरीय साहित्यमें उपलब्ध होता है समवायांगसूत्र तथा श्रावश्यकनियुक्निकार भद्रबाहुकी अवि- जिससे यह कल्पना भी निष्याण एवं निराधार जान पड़ती वाहित मान्यता है। है कि यशोदा अल्पजीवी थी और वह भगवान महावीरके "एगूणवीसं तिथयरा अगारवासमज्मे वसित्ता मुंडे दीक्षित होनेसे पूर्व ही दिवंगत हो चुकी थी। अत: उसकी वित्ताणं अगाराओ अणगारिश्र पवइया" मृत्युके बाद भगवान महावारके ब्रह्मचारी रहनेसे वे ब्रह्मचारीके -समवायांगसूत्र १६ पृ. ३५ रूपमें प्रसिद्ध हो गए थे। इम सूत्र में १६ तीर्थकरोंका घरमें रहकर और भोग भोग -देखो, अनेकान्त वर्ष ४ कि० ११, १२
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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