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अनेकान्त
वैभव में पले और रह रहे थे किन्तु वह जलमें कमलवत कि अमुक पुरुषने अज्ञानता या विद्वषवश असहनीय उपमर्ग रहते हुए उसे एक कारागृह ही समझ रहे थे, उनका अन्तः किया है। यह महावीरकी महानता और सहन-शालताका करण सांसारिक भोगाकांक्षाओंसे विरक और लाक-कल्याण- उच्चा आदर्श है। उन्होंने १२ वर्ष तक मौन पूर्वक जो कठोर की भावनासे श्रोत-प्रोत था। अत: विवाह-सम्बन्धको चचा तपश्ा का और मानव तथा तियचों द्वारा किये जाने वाले होने पर उसे अस्वीकार करना समुचित ही था । कुमार प्रसहाय उपयोंको निर्ममभावस सहन किया । उपपर्ग बर्द्धमान स्वभावतः ही वैराग्यशील थे। उनका अन्तःकरण और परिषह सहिप्णू होना महावीरके साधु-जीवनकी श्रादर्शता प्रशान्त और दयासे भरपूर था, वं दीन-दुखियोंक दु.ग्वोंका और महानता है। श्रमण महावीर शत्रु-मित्र, सुग्व-दुग्व, अन्त करना चाहते थे। इस समय उनकी अवस्था भो २६ प्रशंसा-निन्दा, लोह-कचन और जीवन-मरणादिम समानवर्ष ७ महीने और १२ दिन की हो चुकी था। अतः आत्मो- भावको-माह दोभस रहित वीतरागभावकी-अवलम्बन (कर्षकी भावना निरन्तर उदित हो रही था जो अन्तिम किये हुए थे। वे स्व-पर-कल्पना रूप ममकार अहकारात्मक ध्येयकी साधक ही नहीं, किन्तु उसके मूर्तरूप हानेका सच्चा विकल्पाका जात चुके थे और निर्भय होकर सिहक समान प्रतीक थी। अतः भगवान महावारने द्वादश भावनाओंका ग्राम नगारादिमें स्वच्छन्द विचरते थे। महावीर अपने यात्रु चिन्तन करते हुए संसारका अनित्य एव अशरणादि अनुभव जीवनमें तीन दिनसे अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। किया और राज्य-विभूतिको छोडकर जिन दाता लेनका दृढ़ किन्तु वर्षा ऋतुमे व चार महाना जरूर किमी एक स्थान पर संकल्प किया। उनकी लोकोपकारी इस भावनाका लोकान्तिक रहकर योग-साधनामें निरत रहते थे। उनक मानी साधुदबोंन अभिनन्दन किया और भगवान महावीरन 'ज्ञातम्बर' जीवनस भा जनताको विशेष लाभ पहुंचा था। अनंकोंका नामक वनमें मंगशिर कृष्णा दशमीक दिन जिनदीक्षा अभयदान मिला, और अनकों का उद्धार हुआ और अनकाका ग्रहण की । उन्होंने बहुमूल्य वस्त्राभूषणांको उतारकर पथ-प्रदर्शन मिला। यद्यांप श्रमण महावीरक मुनि जावनमें फेंक दिया और पंचमुट्ठियांसे अपने कंशोका लोच कर डाला। होने वाले उपनगों का विस्तृत उल्लेख श्वेताम्बर परम्पराक इस तरह भगवान महावीरने सर्व पोरस निर्भय एवं निस्पृह समान दिगम्बर साहित्यम उपलब्ध नहीं होना परन्तु पांचवी और ग्रन्थ रहिन होकर दिगम्बर मुद्रा धारण कीx, जो शताब्दी प्राचार्य निवृषभका निलीयपण्णताका चतुर्थायथा-जात बालकके समान निर्विकार, वीतराग और ग्राम- धिकारगत १६२० न० की गाथांक- मत्तमतयामंतिमतिन्थसिद्धिकी प्रमाधक थी।
यगणं च उवमम्गा' वाक्थस, जिसमें मातवें, तेईसवे श्रीर तपश्चर्या योर केवलज्ञान
अंतिम तीर्थकर महावीरक सोपसर्ग होनसा स्पष्ट उल्लेख किया
गया है । इसमें महावीरक मापमर्ग माधु जीवनका स्पष्ट पाभास • भगवान महावीरने अपने साधु जीवनमें अनशनादि
मिल जाता है। भले ही उनमें कुछ अतिशयोक्रिसे काम द्वादश दुर्धर एवं दुष्कर तपोंका अनुष्ठान किया। भयानक
। अनुष्ठान किया। भयानक लिया गया हो । परन्तु मण महावीर के सोपसर्ग साधु हिस्त्रजावांस भरी हुई अटवीमें विहार किया, डाय मच्छर, जीवनस इंकार नहीं किया जा सकता। शीत, उप्ण और वर्षादिजन्य घोर कष्टीको महा साथ ही
महावीरन अपन साधुजीवनम पंचमितियोंक साथ मनउपसर्ग परीघहोंको, जो दूसरोंक द्वारा अज्ञानभावस अथवा वचन-कायरूप तीन गुप्तियांको जीननं श्रीर पंचन्द्रियोंको विद्शवश उत्पन्न किये गए थे, उन्हें सम्यक् भावसे सहन उनक विपर्यास निराध करने तथा कपाय चक्रको कुशल किया परन्तु इमरोंके प्रति अपने चित्तम जरा भी विकृतिका
मल्नके ममान मलमलकर निष्प्राण एवं रस रहित बनानेका स्थान नहीं दिया, और न कभा यह विचार ही उत्पन्न हुश्रा
उपक्रम करते हुए दर्शनज्ञान चारित्रकी स्थिरतासे ममतामय * देखो, पूज्यपादकृत निर्वाण भकि
संयतीवन व्यतीत करते हुए समस्त परद्रव्यांक विकल्पोस x श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्यता है कि महावीरक दिगम्बर शून्य विशुद्ध पात्मस्वरूपमें निश्चल वृत्तिस अवगाहन करने दीक्षा लेने पर इन्द्रने एक 'देवपूष्य' वस्त्र उन कंधे पर थे। श्रमण महावीर को इस तरह ग्राम, खेट, कवंट और डाल दिया था, कुछ समय बाद जिसमेंसे प्राधा फादकर सममत्तुबंधुवग्गो सममुह-दुक्खा पसंमणिंदममा । उन्होंने गरीब ब्राह्मण को दे दिया था।
समलोट्टकंचणो पुण जीविद मरणे समो समणों ।