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किरण }
भगवान महावीर
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वन मटम्बादि अनेक स्थानों में मौन पूर्वक x उप्रोग्र तपश्च- प्राप्त हुए । उनके समक्ष जाति-विरोधीजीव भी अपना र. रणोंका अनुष्ठान एवं प्राचरण करते हुए बारह वर्ष, पांच महीनं विरोध छोड देते थे। उनकी अहिंमा विश्वशांति और
और १५ दिनका समय व्यतीत हो गया । और वे घोर वास्तविक स्वतन्त्रताकी प्रतीक है और इसीलिए प्राचार्य नपक साधन द्वारा अपनी चित्त शुद्धि करते हए जम्भिका समन्तभद्रने उस परब्रह्म बतलाया है। ग्रामक समीप आये और ऋजूकूला नदीक किनारे शालवृक्षक भगवान महावीरका उपदेश और विहार नाचे वशाग्व शुक्ला दशमाको तीसरे पहरके समय जब व एक केवलज्ञान होनेके पश्चान् महावीरको दिव्य वाणीको शिला पर षष्ठोपबामसे युक्र होकर क्षपकश्रेणी पर श्रारूढ थे, झेलने या अवधारण करने योग्य कोई गणधर नहीं था, इस उस समय चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्रक मध्यमें स्थिन था, भग- कारण भगवान छयामठ दिन तक मौन पूर्वक रहे। वान महावीरन ध्यानरूपी अग्निक द्वारा ज्ञानावरणादि घाति- पश्चात राजगृहके विपुलगिरिपर श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको कर्ममलको दग्ध किया+ और स्वाभाविक आत्म-गुणों का पूर्ण अभिजित नक्षत्रमें भगवान महावीरक मर्वोदय तीर्थकी धाग विकाम किया कंबल ज्ञान या पूर्णज्ञान प्राप्त किया। १ । कर्म प्रवाहित हुई । अर्थात भगवानका मबस प्रथम उपदेश कलंक बिनाशसे संसारक सभी पदार्थ उन ज्ञानमें युगपत हया । उसी दिनसे वीरक शासनकी लोको प्रवृत्ति प्रतिभापित होने लगे और इस तरह भगवान महावीर वीत- हुई-तीर्थचला। वह वर्षका प्रथम माप और प्रथम पक्ष गग. पर्वज और सर्वदर्शी होकर अहियाकी पूर्णप्रतिष्ठाको था, वहीयुगका भी प्राति था । इपीस अब यह पर्व वीर
xश्वनाम्बर सम्प्रदायमें ग्राम नीर पर नीर्थकगेंक मौन- संत्रामदिर द्वारा प्रचरित समाजमें वीरशामन जयन्तीक पूर्वक तपश्चरणका विधान नही है। किन्तु उनके यहां जहां रूपमें मनाया जाने लगा है। क्योंकि इसका मानव नहां वर्षावाममें चौमामा विनाने और छद्मथ अवस्थामें उप- जीवनक विकामसे स्वाम्म सम्बन्ध है। उनकी इस सभा। देशादि म्वयं देने अथवा यक्षादिक द्वारा दिलानका उल्लंग्व पाया नाम समवसरण सभा था और उसमें देव, मनुष्य, पशु,पक्षी जाता है । परन्तु श्राचागंगमूत्र : टीकाकार शीलांकन माधिक वर्गरह सभी जीवोंको समुचित स्थान मिला, सभी मनुष्य बारह वर्षतक मौनपूर्वक तपश्चरणका दिगम्बर परम्पराके निथंच बिना किसी भेदभावक एक स्थान पर बैठकर धर्मोपदेश समान ही विधान किया है, वे वाक्य इस प्रकार हैं :- रहे थे । वनुष्योंकी तो बात क्या उस समय मिह, हिरण, ___'नानाभिधाभिनपता घोगन परीषहोपपर्गानपि महमानो सर्प, नकुल और चूहा बिल्ली श्रादि निथचों में भी कोई वैरमहापचया म्लेच्छानप्युपशमं नयन द्वादशवर्षाणि माधि- विरोध दृष्टिगोचर न होता था, प्रत्युन वे सब बड़ी हा शांनिकानि छद्मस्थी मौनव्रती नपश्चचार ।"
के साथ दिव्य दशनाका पानकर रहे थे। इसमें पाठक भग-पाचागंगवृनि पृ. २७३ वान महावीरक शामनकी महत्ताका अनुमान कर सकते है। प्राचार्य शालांकक इम उल्लेख परसे श्यताम्बर
___x आंहला प्रतिष्ठायां तन्मन्निधी वैर त्याग., ३५, सम्प्रदायमें भी नीर्थकर महावीके मौनपूर्वक तपश्चरणका
-पातंजलिकृत योगसूत्र। विधान होनस छनम्य अवस्थामें उपदेशादिकी कल्पना निरर्थक ॐ अहिमा भूतानां जगति विदितं ब्रह्मपरम, जान पड़ती है।
न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ। * धवनामें भी भगवान महावीर नपश्चरणका काल बारह वर्षमा पांच महीने बतलाया है जैसा कि उपमें
ततस्तन्सिाय परमकमणी ग्रन्थमुभयं,
भवानेवाऽत्याक्षीन च विकृत-षोपधि-रतः ॥ स्वयं समुद्धत निम्न प्राचीन गाथासं स्पष्ट है
+ षट्षष्ठि दिवमानभृयो मनिन बिहरन विभुः । गमइय छदुमत्थतं बारस वासाणि पंचमासय ।
आजगम जगतख्यातं जिनो राजगृहं पुरं ॥ पण्णाग्म दिनाणिय ति-रयगामुद्धा महावीरो॥
-हरियश पुराण २-६१ + दवा, निर्वाणभक्ति पूज्यपाद कृत १०,१११२ । x वामस्म पढममास पढमे पक्खन्हि मावणे बहुले । ५ वइमाह-जोगहाम्वदममीए उजुकूलणदीतीरे जंभिय- पादिवद-पुत्र-दिवसे तिस्थुप्पत्ती दु अभिजिन्हि ॥ गामम्प वाहिछटोबवासेण मिलावटटे पाढावतण अवररहे सावण-बहुल-पडिवद रुह-मुहत्ते सुहोदए रविणो । पाद छायाए कंवलणाण मुप्पाइदं।
अभिजिस्म पढम जोए जन्य जुगादी मुणेयब्यो । -जयधवला भा० १,५०४६
-धवला,,पृ०६३