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किरण ४ ]
निर्देश करते हुए सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्रका स्वरूप दिया है और बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मरूप ध्रुवस्थाओंका विवेचन करते हुए धमकी अवस्था ज्ञान दर्शन मम्यश्वाचरण और चारित्राचरण की रीति निर्दिष्ट की है उसका अपने परिणामोंस मंतुलन करते हुए अपने स्वरूपकी ओर दृष्टि करनेका स्पष्ट संकेत किया है अर्थात ज्ञानीI at श्रात्मावलोकन की ओर प्रेरित किया है। क्योंकि सदृष्टिमें हो अहम्मालोकन होता है, स्वानुभव प्रत्यक्ष द्वारा ही उस अचिन्त्य महिमावाले टंकोत्कीर्ण ज्ञायकभावरूप श्रात्माक दर्शन होते है। उसीको करानेका विशुद्ध लय पकर्ताका है।
४ परमात्मपुराण- इस ग्रंथ में शाहजीने चाध्यामिक दृष्टिसे अनन्तमहिमायुक शिव (मोक्ष) को एक द्वीपसंज्ञा प्रदान कर उसमें श्रात्मप्रदेशरूप श्रसंख्य देशोंकी कल्पना की है जिसमें एक एक देशको अनन्त गुण-पुरुषोंक द्वारा व्याप्त बतलाते हुए उन गुण-पुरुषोंकी गुणपरिणति नामक नारीका नामोल्लेख किया है। उस शिवद्वीपका राजा परमात्मा चेतना परिणति रानी दर्शन-ज्ञान- चाररूपीन मंत्री सम्यक्त्व फौजदार (सेनापति) और स्वदेशांक परिणामको कोटवाल संज्ञा दी गई है। परमात्मराजांक अनन्त उमराव (सरदार) हैं उनके प्रभुत्व, विभुत्व, तत्त्वनाम यदि कतिपय नामोंका भी उल्लेख किया है और उन सबके कार्योका जुदा ख़ुदा कथन दिया हुआ है। आत्मप्रदेशरूप देशमें अवस्थित गुण-पुरुषोंको ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ गृहस्थ, साधु, ऋषि मुनि और यति कहनेका सकारण उल्लेख किया है। और इस तरह शिवद्वीपक शासक परमात्मा, चितपरिणति रानी, श्रात्मप्रदेशवासी गुण- पुरुषों, गुण परिणतिरूप पत्नियों, उनके संयोगसे 'ग्रानन्द' नामक पुत्रकी उत्ति दर्शनादि मंत्रियों सम्यक्वरूप संनापति और परिणाम कोटपाल द्वारा देशकी रचाका अलंकारिक रूपमें सुन्दर चित्रण किया है और उनके कयों का दिग्दर्शन कराने हुए परमात्म राजा राज्यको शास्वत बनलाया गया है। दूसरे शब्दोंमें इसे इस रूपमें कहा जा सकता है कि शाहजीने बड़ी चतुराईस परमात्मा और चेतना परिणतिरूप शनीक कार्योंका दिग्दर्शन कराते हुए उनकी 'स्वरमप्रवृत्ति' रूप क्रियाका भी उल्लेख किया है। उनकी इस अपूर्व कल्पनाका गुणीजन सदा चादर कोंगे और उसके अर्थका विचार करते हुए उस श्रात्मसारको हृदयंगम करेंगे, बही अपने चिदानन्द भूषको पहिचानने में समर्थ हो सकेंगे। अन्तमें निम्न ३३ यां सनैया और एक दोहा देकर
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इस ग्रन्थका परिचय समप्त किया जाता है जिसमें भगवान परमात्मा के प्रति रुचि उत्पन्न करनेकी प्रेरणा की है।
पं० दीपचन्दजी शाह और उनकी रचनाएँ
परम पुराण लखे पुरुष पुराण पाले सही है, स्वज्ञान जाकी महिमा अपार है। ताके कियें धारण उधाररणास्वरूप का है सितारणासी लहै भवपार है । राजा परमात्माको करत बखाण महा दीपको सुजस बढै सदा अधिकार है। अमल अनूप चिदरूप चिदानन्दभूप, तुरत ही जाने करे अरथ विचार है ॥१॥
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परम पुरुष परमात्मा, परम गुणनकी थान । ताकी रुचि नित कीजिये पाये पद भगवान ॥
इनके अतिरि आपकी तीन पद्य रचनाएँ ज्ञानदर्पण, उपदेशम्नमाला और स्वरूपानन्द- उपलब्ध हैं जो साध्यात्मिक होनेके साथ मात्र बड़ी ही सुन्दर और भावपूर्ण जान पड़ती है। उनके अवलोकनसे यापकी कवित्वशत्रिका सहज ही अनुमान हो जाता है, कविता सरल और मनमोहक हैं। यद्यपि जैन समाज में कविवर बनारसीदाम भगवतीदाम, भूधराम, चानतराय, डीलतराम आदि अनेक प्रसिद्ध कवि हुए है, जिनकी काव्य-कला अनुपम है, उनकी रचनाएँ हिन्दी-साहित्यकी पूर्व देन है, उनकी कविताओं में जो माहजिक मरसता और मधुरता है वह इनमें प्रस्फुरित नहीं है। फिर भी शाहजी की कविता भी मध्यम दर्जेकी है; और वह कविता भी आन्तरितिनाका प्रतीक है।
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ज्ञानदर्पण - शटकोंकी जानकारी लिए उन शानद नामक रचनाके दो चार पद्य उद्धृत किए जाते हैंअलवरूपी अज आतम अमित तेज, एक अविकारसार पद त्रिभुवन में चिरौं सुभाष जाको समै हु सम्हारो नांदि, परपद आपो मानि भग्यो भव वनमें फरम फलोलनिमें मिल्यो है निशङ्क महा, पद-पद प्रतिरागी भयो तन तन में ऐसी चिरकालको बहु विपति पिलाय जाय नेक हू निहार देखो आप निजधनमें ||४६ || निचें निहारत ही आत्मा अनादिसिद्ध, आप निजभूल ही है भयो बिवहारी है, शायक सर्कात यथाविधि सो वा गोप्य दुई प्रगट अज्ञानभाव दशा बिसनारी है। अपनों न रूपजाने और ही सी और माने, ठाने भय-खेद् निज रीति न सँभारी है। ऐसे ही अनादि