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________________ ११४] त्रैलोक्यज्य सव उच्चपद लोक कार्य करना है। कर्म - घटामें मेरा स्वरूप- सूर्य छिपा है। कछु मेरा स्वरूप सूर्यका प्रकाश कर्म-घटा करि हण्या न जाय, श्रावस्या हेडका हुआ हैपराका जोर है (सो) मेरे स्वरूप ह न सके। heat rear न करिमके मेरी ही भूल भई, स्वपदभूला, भूलि मेड़ी जब ही मेरा स्वपद ज्योंका न्यों बना है।" पृष्ठ १२ x X x 'जघन्यज्ञानी मैं प्रतिति करें ? तो कहिए है- मेरा दर्शन ज्ञागका प्रकाश मेर प्रदेश उठे है । जानपना मेरा मैं ही ऐसी प्रतीति करना आनन्द हो सो निर्विकल्प है। ज्ञान उपयोग यावरण में गुप्त है। ज्ञानमें श्रावरण नहीं। वहाँ जेता श्रंश श्रावरण गया, तेता ज्ञान भया ताज्ञानावरण न्यारा है, सो अपना स्वभाव है। जेना ज्ञान प्रगव्या तेना अपना स्वभाव खुल्या, सो थापा है ।" अनेकान्त [ वर्ष १३ कालसे परकी मंगतिसे होने वाली विकार परिक्षति और सज्जन्य दुःग्योंका अनेक दृष्टान्तोंके द्वारा स्वरूप बतलाया गया और पद-पद पर जीवकी भूलसे होने वाली बन्ध परिणिति, तथा उससे छूटनेका और स्व-पर स्वरूपके पिछाननेके उपायका निरूपण किया गया है। पृष्ठ १७ यह भाषा अठारहवीं सदीके अन्तिम चरण की है, क्योंकि पं० दीपचन्द्रजीने अपना 'चिद्विलाम' नामका ग्रंथ वि० सं० १७७६ में बनाकर समाप्त किया है । इससे यह भाषा उस समयकी हिन्दी गय है, बादको इसमें काफी परिवर्तन और विकास हुआ है और उसका विकमितरूप आचार्यकल्प पनि टोडरमलजी 'मांचमार्ग प्रकाश' यदि प्रयोका भाषासे स्पष्ट है। यह भाषा 'डारी और ब्रजभाषा मिश्रित है; परन्तु यह भाषा उस समय बड़ी ही लोकप्रिय समझी जाती थी । श्राज भी जब हम उसका अध्ययन करते है तब हमें उसकी सरसता और मरलताका पदपद पर अनुभव होता है । यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थकर्ताकी भाषा जननी परिमार्जित नहीं है जितना कि परिमार्जित रूप पं० टोडरमलजी की और पं० जयजन्दजी आदि विद्वानोंके टीकाथोकी भाषा में पाया जाता है। फिर भी, उसकी लोकप्रियता और माधुर्यमें कोई कमी नहीं हुई इस भाषा का साहित्य भी प्रायः दिगम्बर जैनियोंका अधिक जान है 1 पड़ता aarat रचनाओंका यथाक्रम से परिचय दिया जा रहा है जिससे पाठक उनके विषयसे परिचित हो सके । 5 अनुभव प्रकाश इसका विषय उसके नामसे ही प्रगट है। प्रन्थकी भाषाका उद्धरण पहले दिया जा चुका है, उससे अन्धकी भाषा और उसमें पथित आध्यात्मिक विषयका दिग्दर्शन हो जाता है। प्रन्थ जीवात्माकी धनादि बहित्माकी दशाका चित्रण करते हुए उसकी परिणतिका भी उल्लेख किया है और बतलाया है कि जब यह श्रात्मा परमें श्रात्मकल्पना करता है- जड़ शरीरादिको आत्मा मानता है, उस समय यदि शरीरका कोई अंग सड़ जाता, गल जाना या विनष्ट हो जाता है। तब यह कितना विलाप करता है, रोना है जिस तरह बन्दरको कोई कंकर पत्थर मारे तो वह भी रोता है, ठीक उसी प्रकार यह भी रोताचिल्लाना है, हाय हाय, मैं मरा, मेरा यह अंग भंग हुआ है । इस दुबका कारण जड शरीरमें ग्रात्माकी कल्पना करना हे परको हो अपना मानकर दुग्बी हो रहा है। फिर भी जड़की संगतिमें सुत्रकी कल्पना करता है। अपनी शिव नगरीका राज्य भूला हुआ है जो गुरु उपदेशानुसार अपने स्वरूपकी संभाल करे तो शिवनगरीका स्वयं राजा होकर विनाश राय करे जैसाकि की निम्न पंक्रियोंसे प्रकट है : 1 वानर एक कोकराके परोया देहका एक तो बहुशरो मेरे और में इनका छोजें । ये जनप सुग्व मान 1 अपनी शिवनगरीका रज्य भूल्या, जो श्री गुरुके कहे शिवपुरीकों संभाले, तौ वहांका श्राप चेतन राजा अविनाशी राज्य करें ।' इस तरह यह ग्रन्थ मुमुक्षुत्रोंके लिए बड़ा ही उपयोगी है अंग भी टही २ चिद्विलास इस ग्रंथ में भी अध्यात्मदृष्टिसे चम न्यके विलासका वर्णन किया गया है, उसमें द्रव्यगुण पर्यायका स्वरूप दिखलाते हुए, सत्ताक स्वरूपका निरूपण किया है। और प्रभु विभुम् आदिशक्रियों का विवेचन करते हुए समाधिके १३ भेदों द्वारा परमात्मपदके साधनका उपाय बतलाया है। जिन्हें परमारमपदके अनुभवकी इच्छा हो वे इस ग्रन्थका मनन एवं श्रवधारणकर परमात्म पद प्राप्त करनेका प्रयत्न करें। इस थको शाहजीने सं० १७७३ में फाल्गुन बदि पंचमीको आमेर में बनाकर समाप्त किया है। ३ आत्मावलोकन- इसका विषयी उसके नामसे स्पष्ट है इसमें पहले देव-गुरु- धर्मका निरूपण करते हुए हेयउपादेयरूप यचका विवेचन किया है और सात तत्वोंका
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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