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अहिंसा-तत्त्व
(परमानन्द जैन शास्त्री) संसारक समस्त धर्मोका मूल अहिसा है, यदि इन जब हम किमी जीयको दुखी करने-मताने पीढ़ा देनेका धर्मोमेंसे अहिंसाको सर्वथा पृथक् कर दिया जाय तो वे धर्म विचार करते हैं उसी समय हमारे भावोंमें और बचन-कायनिष्प्राण एवं अनुपादेय हो जाते हैं। इसी कारण अहिसा- की प्रवृत्ति एक प्रकारको विकृति या जाती है, जिससे हृदयतत्त्वको भारतके विविध धर्म संस्थापकोंने अपनाया ही नहीं, में अशान्ति और शरीरमें बेचैनी उत्पन्न होती रहती है और किन्तु उसे अपने-अपने धर्मका प्रायः मुख्य अङ्ग भी बनाया जो प्रात्मिक शान्तिकं विनाशका कारण है, इसी प्रकारक है। अहिंमा जीवनप्रदायिनी शनि है, इसके बिना मंसारमं प्रयत्नावशको अथवा तज्जन्य संकल्प विशेषको मरम्भ कहते सुख शान्तिका अनुभव नहीं हो सकता । जिस तरह मम्य- है। पश्चात अपनी कुन्मित चित्तवृत्तिके अनुकूल उम ग्निर्धारित राज्यनीतिक बिना गज्यका संचालन सुचारु रीति- प्राणिको दुम्बी करनेके अनेक साधन जुटाये जाते हैं। मायाचागे से नहीं हो सकता उसी तरह अहिसाका अनुसरण किये से दृयरोंको उमक विरुद्ध भडकाया जाता है, विश्वासघात बिना शान्तिका साम्राज्य भी स्थापित नहीं हो सकता किया जाता है-कपटसं उसके हितेषी मित्रों में फूट डाली अहिंसाके पालनसे ही जीवात्मा पराधीनताक बन्धनोंस छूठकर जाती है उन्हें उसका शव बनानेकी चेष्टा की जाती है, वास्तविक स्वाधीनताको प्राप्त कर सकता है। अहिसाकी इस तरह से दूसरोंको पीड़ा पहुँचाने रूप व्यापारके माधनोंको भावना अाज भारतका प्राण है, परन्तु इसका पूर्ण रूपसे मंचित करने तथा उनका अभ्यास बढानेको ममारम्भ कहा पालन करना और उसे अपने जीवनमें उतारना कुछ कटिन जाता है। फिर उस माधनसामग्रीक सम्पन्न हो जाने पर अवश्य प्रतीत होता है। अहिंसासे अात्मनिर्भयता वीरता, उपक मारने या दुग्वी करनेका जो कार्य प्रारम्भ कर दिया दया और शौर्यादि गुणोंकी वृद्धि होती है, उसमे ही प्राणि- जाता है उस क्रियाको प्रारम्भ कहते हैं।। ऊपरकी उक समाजमें परस्पर प्रेम बदना है और स्मारमें मुख-शान्तिको दोनों क्रियाएं नो भावहिंमाकी पहली और दूसरी श्रेणी है समृद्धि होती है। अहियाके इस गम्भीर रहस्यको समझनेके ही, किन्तु तीसरी प्रारम्भक्रिया द्वन्य-भाव रूप दोनों प्रकारलिये उसके विरोधी धर्म हिसाका स्वरूप जानना अन्यन्त की हिंमा गर्भित है अतः ये तीनों ही क्रियाएँ हिंसाकी आवश्यक है।
जननी है । इन क्रियाकं माथमें मन वचन तथा कायकी जैनदृष्टि से हिंसा अहिसाका स्वरूप
x'संरंभो मंकप्पो'-भ. श्राराधनायां, शिवार्यः ८१२। हिसा शब्द हननार्थक हिसि धातुस निष्पन्न होता है। प्राण्णव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावशः संरंभः । इस कारण उसका अर्थ-प्रमाद वा कपायक निमित्तस किमी
-सर्वा सिद्वौ, पूज्यपादः, ६,८। भी मचेतन प्राणीको मताना या उपक ध्यभाव रूप प्राणी- प्रागणव्यपराणादी प्रमाढवतः प्रयत्नः संरंभः का वियोग करना होता है । अथवा किसी जीवको बुर
-विजयोदयां, अपराजितः गा. ८१ भावस शारीरिक तथा मानसिक कष्ट देना, गाली प्रदानादि- +परिदावकदा हवे समारम्भो ॥ रूप अपशब्दोंके द्वारा उसके दिलको दुखाना, हस्त, कोडा,
-भग. आराधनाया, शिवार्यः ८१२ लाठी प्रादिसे प्रहार करना इत्यादि कारण-कलापास उसे प्राण
साधनसमभ्यामीकरणं समारम्भः ।
सर्वार्थसिद्वौ, पूज्यपादः, ६,८। रहित करने या प्राणपीडित करनेके लिये जो व्यापार किया
माध्याया हिमादिक्रियायाः साधनानासमाहारः समारंभः। जाता है उसे 'हिंसा' कहते हैं।
-विजयोदयायां, अपराजितः, गा० ८.७। प्रमत्त योगायाणव्यपरोणं हिंमा।
प्रारम्भो उदवो, -तत्त्वा मूत्रे, उमास्वातिः
-भ. अराधनायां शिवायः, ८१२ । यल्बलु कषाययोगात् प्राणानां द्वन्यभावरूपाणां । प्रक्रमः श्रारम्भः। सर्वार्थसिद्धी, पूज्यपादः ६,८। व्यपरोपणस्य करणं मुनिश्चिता भवति मा हिमा संचितहिसाधु पकारणस्य प्रायः प्रक्रमः श्रारंभः । -पुरुषार्थसिद्धयुपाये, अमृतचन्द्रः
विजयोदयायाः अपराजितः, गा."