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________________ [ किरण ३] आत्महितकी बातें प्रज्ञप्ति' प्राकृत लिखाकर पं० मेधावीको प्रदानकी थी। उपसंहार (१) संवत् १५६० में माणिक बाई हमडने, जो व्रत धारिणी अशा है पाठक इस लेग्वकी संक्षिप्त सामग्री परम धी, गोम्मटमारपंजिका लिखाकर लघुविशालकीर्तिको नारीकी महत्ताका अवलोकन करेंगे, उसे उचित मामान भेंट स्वरूप प्रदान की थी। साथ उसकी निर्बलताको दूर करनेका यन्न करेंगे और (६) मंवन् १६६८ में हूंबड नातीय बाई दीगेने लियाकर श्रमणसंस्कृतिमें नारीकी महाका मल्यांकन करकं नारी-जानिभ० सालचन्द्रको प्रदान किया था । को ऊँचा उठाने के अपने कर्तव्यका पालन करेंगे। आत्महितकी बातें (९० सिद्धिसागर) जब लोग निश्च न होने के लिए यशोलिप्पा और यह प्रश्न उन मनीषियोंके मानम में ज्यों का त्यों पा प्राछलका परित्याग करके मन-वचन कायकी चंचलताका कर उनको कितनी बार नहीं जगा जाता?-फिर भी निराध करनेके लिए उद्यम करते है तो सातों तरवों पर झोटे लेनेकी श्रादतसे बाज नहीं पाते है, जो जागनेका विश्वाम करने वाले भारमाको या सरचे विश्वास ज्ञान पाप समझते हैं !! और आचरणको प्रारमहितका वास्तविक रूप निश्चत तप अग्निके बिना कोई भी कर्मों की राख नहीं बना करते हैं। सम्भव है चलने में पैर फिसल जाय किम् गय किन्तु सकता । इच्छाके निराध होने पर ही नपकी पाग प्रज्वलित । पैरको जमा कर रग्बनेका अभ्यास तो वे करते ₹-वे होती है। यह वह भाग है जो सुम्ब को चरम सीमा तक क्रोधकी ज्वालासे जलने हुप गर्नमें न गिर जावें इमके चार लिए यथा उद्यम भी करते हैं। यदि कभी-कभी क्रोधकी जो वस्तु पराई है और है वह विद्यमान तो उसे लपटोसे वे झुलस जाते हैं उसे हेय नो अवश्य ममम लेते छोड़ने में सारी झमट छूट जाती है । हैं। उनका दुर्भाग्य है जो अनंतानुबन्धी क्रोधको भागमें जलने है। मानके पहाड़मे उतर कर वे सम्पूर्ण विद्या और मरते समय जब शरीर ही अजंग हो जाता है तो चारित्रके सच्चे नेनाते हैं। कपरकी झपटमै कभी वे फिर शेष घर भादिक अपने कैमें हो सकते हैं अपने प्राते हो तो चपेट भी अवश्य सहन करते ही हैं। आगामी ज्ञान चतनामय कतृ स्वसे भिन्न अन्यका कर्ता होनेका तृष्णाको छोड़ने पर दुर्गतिका अन्त तो होता ही है किन्तु माइम वे अन्तःकरणमे तन्मय होकर अनन्तानुबन्धी रूपमे मततामयाब नहीं कर सकते जो सम्यग्दर्शनकी नीव पर बढ़े हैं। सरयका सूर्य जिसके अन्तःकरणसे उदित होकर मुख- जीवांका महारा प्राप पाप ही अपने रहना है। गिरि पर चमक रहा है- क्या मजाल जो दुराग्रहियाक गुरुकुलके गुरुकुल में रहते हुए स्नातक होना परम ब्रह्मचर्य बकवाद उमके सामने अधिक टिक सके। वम म्याद्वादकी । स्त्रीके किसी भी अवस्थामें दृष्टिगत हो जाने पर किरणांस चमकता हुआ अनेकान्त सूर्य उन नीवांके विकृत न होना ब्रह्मचर्य है। उत्तम दश लक्षया वाल माहान्धकारको दूर करने में समर्थ है जो निकट भव्य है- धर्मको निर्व्यसनी निष्पाप व्यक्ति पाल और रग्नत्रयम उल्लूको मूर्य मार्ग नहीं बता सकता। त्रिगुप्ति गुप्त रह जावे तो मामा हो अपने हितका संयम जीवोंको कौनसा सुम्ब ? नहीं देता अब मी सरचा रूप है।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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