________________
वर्ष १३]
श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन
[३०५
पुण्यपापास्रवो युक्तो न चेद् व्यर्थ स्तवाहतः ।। अन्यथा कर्तृत्वजन्य-अहंकारवृत्ति हटना कठिन हो जाता है।
सुख और दुःख यदि विशुद्धिका अंग हो, यानी कारण- अनेकान्त-प्रणेता समतभद्ने कार्योत्पत्तिके लिये दोनों ही कार्य-स्वभावमें किसी एक रूप हो तो पुण्यात्रव और सुख- कारण निमित्त उपादान सिर्फ आवश्यक ही नहीं, बल्कि दुःख यदि संक्लेशका अंग-कार्य-कारण-स्वभाव में किसी एक अनिवार्य कहे हैं: 'यथा-कार्य बहिरन्तः उपाधिमि:' बाबारूप हो तो पापात्रव है। इन्होंने पुण्य-पापके लिये विशुद्धि अभ्यंतर दोनों कारणोंसे कार्य होता है । उन्होंने और भी
और संक्रश शब्द रखे हैं। अष्टसहस्रीकार विद्यानंदने स्पष्ट कहा हैविशुद्धिमें धर्म-शुक्लध्यान अंतर्गत किये हैं। पार्तीन यवस्तु बाह्य गुणदोषसूतेः, निमित्तमभ्यंतर-मूलहेतोः ध्यानोंको संक्रशके भीतर रखा है। इससे विशुद्धिमें शुभ अध्य त्मवृत्तस्य तदंगभूतं, अभ्यंतर केवलमप्यलं ते तथा शुद्ध दानों भावोंको अंतर्गत करनेकी समंतभद्रकी
मूल अभ्यंतर तथा बाह्य कारणके बिना अकेला जीवव्यवस्था विशेष है । कुदकु दने पुण्य और पापको बंध
द्रव्य-परिणमन गुण-दोषकी उत्पत्तिमें समर्थ नहीं। सहकारी कारण होनेसे विशुद्धावस्थाको दृष्टिमें स्याज्य कहा है । लेकिन
कारण उपादानके समान ही कार्यकारी है। इसी बातको दोनोंके लिये पुण्य-पुण्यास्रव पुण्यबंधका कारण और पाप- समन्तभद्र और भी पुष्ट करते हैं। पापाखव-पापबंधका कारण है।
'अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यते यं, हेतुद्वयाऽऽविष्कृत कार्यलिंगा जहाँ कुदकुदने पुण्य-पापकी व्यवस्था शुद्ध-निश्चय,
हेतुद्वय-निमित्त उपादान या अंतरंग-बहिरंग कारणोंसे अशुद्ध व्यवहारष्टिसे की है वहाँ समन्तभद्रने पुण्य-पापकी
प्राविष्कृत-प्रगट होने वाली भवितव्यताकी-कार्यशक्रि चलंघ्य है। कथंचित् अस्ति-नास्ति रूप, उभय अनुभय रूप, वक्रव्य
भागे और भी अधिक स्पष्ट कहते हैं कि मोक्ष भी सहकारी प्रवक्तव्य रूप, सहार्पित-कार्पितकी दृष्टिसे व्यवस्था की है।
कारणोंके बिना असम्भव है । बाह्य-इतर उपाधि या निमित्तनिमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध
उपादान द्रव्यगत स्वभाव ही है। जैसे किजीव-कर्मका निमित्त-मैमित्तिक सम्बन्ध समयसारके बाह्यतरोपाधिसमप्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः। कर्ताकर्मके अधिकारमें बतलाया गया है। यह भूल नहीं नैवान्यथामोजविधिश्चपुंसांतेनाभिवन्यस्त्वमृषिर्बुधानाम जाना चाहिये कि कुदकुदके मार ग्रन्थ अध्यात्म-प्रधान हैं और उनमें निश्चयकी प्रधानता है। जीव-परिणामके
यदि दोनों प्राचार्योका उपयुक उद्देश्य ठीक उनके ही
दृष्टिकोण परसे समझनेका यत्न किया जाता तो श्री कुदकुदनिमित्तसे पुद्गलोंको कर्मरूप पर्याय होती है। तथा
के नाम पर निश्चय एकान्तका जो दोष मढ़ा जाता है वह पुद्गलोंके निमित्तसे जीव रागादिरूप परिणमता है। जीव
धोया जाकर वस्तु-स्वरूपका यथार्थ और समीचीन ज्ञान और पुद्गल दोनोंके ही निज-उपादान पर-निमित्तरूपमें
होगा । हमें भूल नहीं जाना चाहिये कि कुदकुदने सूत्रद्वारा कदापि बदल नहीं सकने । ऐसा दोनों का निमित्त-नैमित्तिक
जो सिद्धांत कहे हैं निश्चयकी प्रधानता लेकर जो कुछ सम्बन्ध है। जीव उपादानकी दृष्टिसे निज भावोंका कर्ता
कहा है- उमीका कथन-विस्तार अनेकान्तकी दृष्टिस समंतभोका है, न कि कर्मोंका । यह कुदकुंदकी कतृ स्व-अकर्तृत्व
भद्ने किया है। दृष्टि है। इसका मतलब यही है कि प्रत्येक द्रव्य अपने
कुदकुदके मतले अध्यात्ममें जो निमित्त-नैमित्तिक परिणमनमें उपादान है, दूपरा निमित्त है-इपीसे केवल
सम्बन्ध है उसीका स्पष्टीकरण सप्तभंगी न्यायके द्वारा निश्चय दृष्टिले परनिरपेक्ष शुद्ध-अात्मस्वरूपके निमित्तका
समन्तभद्रने किया है। कुन्दकुन्दने विचार किया है।
इसी द्रव्य स्वरूपका निरूपण मागे समन्तभदने दोनोको दृष्टिमें अन्तरकिया है । अध्यात्मशास्त्रके अनुमार कुन्दकुन्दने इन दोनों प्राचार्योंके यदि उपलब्ध ग्रंथ देखे जायें, तो वोतरागी-शुद्ध परिणतिकी अोरसे जानेके लिये, निमि- कुदकुदका ग्रंथ विस्तार मतभद्र से कई गुना अधिक है। तका अहंकार नष्ट करनेकी दृष्टिसे उपादानका समर्थन ग्रंथका विषय देखा जाय तो समंतभद्रका विषय कुंदकुदके जोरदार किया है, और उपादानकी जड़ दृढ़ की है। विस्तीर्ण और विशाल उपवनके चुने हुए दो तीन गुलदस्ते
कियाहा